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________________ जैन संस्कृति का आलोक के चरण जहाँ भी पड़ते है, वह स्थान तीर्थ क्षेत्र बन जाता है। इस विधि दुधर तप तपै, तीनों काल मंझार, लागे सहज सरूप में, तन सो ममत निवार वे गुरू मेरे मन बसो....... कवि सुंदरदासजी की कृति में शूरवीर संत-स्तुति १७वीं सदी के ही श्री सुंदरदासजी ने 'शूरातन अंग' में शूरवीर साधु का वर्णन किया है। उनके अनुसार- ___“जिसने काम-क्रोध को मार डाला है, लोभ और मोह को पीस डाला है, इंद्रियों के विषयों को कत्ल करके शूरवीरता दिखाई है। जिसने मदोन्मत्त मन और अहंकार रूप सेनापति का नाश कर दिया है। मद और मत्सर को निर्मूल कर दिया है। जिसने आशा तृष्णारूपी पाप सांपिनी को मार दिया है। सब वैरियों का संहार करके अपने स्वभाव रूपी महल में ऐसे स्थिर हो गया है, जैसे कोई रण बांकुरा निश्चिंत होकर सो रहा है और आत्मानंद का जो उपभोग करता है, वह कोई विरल शूरवीर साधु ही हो सकता है" - “मारे काम क्रोध सब, लोभ मोह पीसि डारे, इंद्रिहु कतल करी, कियो रजपूतो है।। मार्यो महामत्त मन, मारे अहंकार मीर. मारे मद मच्छर हुं, ऐसो रण रूतो है। मारी आशा तृष्णा पुनि, पापिनी सापिनी दोउ, सबको संहार करी, निज पद पहुँतो है। 'सुंदर' कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरी सब मारि के, निचिंत होइ सूतो है।।" ___- श्री सुंदरदास, सूरातन अंग २१-११ उपाध्याय समयसुंदरजी कृत संत-स्तुति पद १७वीं शती के साहित्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र महामना समयसुंदर उपाध्याय ने सैकडों कवितायें, गीत आदि रचे हैं। उनके गीतों की विशालता के लिए एक उक्ति प्रसिद्ध है - “समयसुंदर ना गीतड़ा, भीता पर ना चीतरा या कुंभे राणा ना भीतड़ा" अर्थात् दीवार पर किये गये चित्रों का, राणा कुंभा के बनाए गए मकान और मंदिरों का जैसे पार पाना कठिन है, उसी प्रकार समयसुंदरजी के गीतों की गणना करना भी कठिन है। संत स्तुति के रूप में भी उनके कई संग्रह है - (i) साधु गीत छत्तीसी - में ४२ गीत है। " (ii) साधु गीतानि - में ४६ गीतों का संग्रह है। (iii) वैराग्यगीत - यह प्रति अधूरी है, इसमें वैराग्य गीतों .. का संकलन है। (iv) दादागरुगीतम - इसमें जिनदत्तसरि और जिनकशल सूरिजी के ६० गीत हैं। (v) जिनसिंहसूरि गीत - इसमें अनेक गीत थे, किंतु २२ गीत ही प्राप्त हुए है। 'साधुगुणगीत' में रचित एक गीत सच्चे साधु के स्वरूप की झलक देता है - तिण साधु के जाऊं बलिहारे, अमम अकिंचन कुखी संबल, पंच महाव्रत जे धारे रे ।।१।। शुद्ध प्ररूपक नइ संवेगी, पालि सदा पंचाचारे, चारित्र ऊपर खप करि बहु, द्रव्य क्षेत्र काल अनुसारे ।।२।। १ समयसुंदरकृति कुसुमांजलि । (संग्राहक) - अगरचंद नाहटा, प्र.सं. | प्राचीन जैन हिंदी साहित्य में संत स्तुति १४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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