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________________ जैन संस्कृति का आलोक प्रत्येक द्रव्य स्वयं चालित है और यह त्रैकालिक वैज्ञानिक अघाति, जो आत्मस्वभाव का घात करते हैं अर्थात् प्रगट व्यवस्था है। न होने में बाधक या निमित्त होते हैं उन्हें घाति और जो कर्म का भेद-विज्ञान बाधक नहीं हैं उन्हें अघाति । प्रथम चार के नाश होते ही जीव जो अनेक प्रकार के भाव या विचार करता है अरहंत दशा प्रगट होती है और अन्य चार के नाश होते उसे विकल्प कहते हैं। विकल्प ही कर्म है और विकल्प ही सिद्ध दशा की प्राप्ति होती है। हर कर्म के प्रतिपक्ष में का करने वाला कर्ता है। इस प्रकार जो जीव विकल्प आत्मा के एक गुण का प्रतिपादन है। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सहित है, उसका कर्ता-कर्म भाव कभी नाश को प्राप्त नहीं । सम्यक्त्व, अनंतवीर्य, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व सूक्ष्मत्व, होता है। जब जीव विकल्प करता है, उसी समय । समय अव्याबाधत्व । इस प्रकार कर्म के अवलम्बन से शुद्ध या ज्ञानावरणादि कर्म द्रव्य कर्म रूप परिणमन करते हैं। इस सिद्ध आत्मा का प्रतिपादन ही जिनवाणी का लक्ष्य है। प्रकार भाव कर्म व द्रव्य कर्म रूप कर्म के भेद किये जाते कर्म या कर्मफल में अति सावधान जीव की प्रवृत्ति कर्मचेतना हैं। कर्म के द्रव्य कर्म, भाव कर्म व नोकर्म (शरीर आदि या कर्म फल-चेतनारूप है, जो संसार का कारण है, यह संबंधी कर्म) रूप तीन भेद भी किये जाते हैं। कर्म के अज्ञानचेतना है। इसका विनाश कर ज्ञान चेतना में प्रवृत्त शुभ (पुण्य) व अशुभ (पाप) ऐसे दो भेद भी किये जाते होना मोक्षमार्ग है और उसका फल साक्षात् मोक्ष है। हैं। पुण्य कर्म से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है और पाप से कर्म के नाश का उपाय सरल व सहज है। जैसे नरंकादि की, लेकिन दोनों ही संसार के कारण हैं। जैसे अंधकार का नाश करने अंधकार को मारना. पीटना. लोहे की वेड़ी बंधन है, वैसे ही सोने की बेडी भी बंध का । भगाना, अनुष्ठान, उत्सव आदि करने की आवश्यकता ही कारण है। नहीं है। अंधकार के बारे में ज्यादा सोचने या विचारने से ___सामान्यतया कर्मों को आठ भागों में बांटा जाता है- भी अंधकार नहीं मिटता। मात्र प्रकाश या दीपक से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, अंधकार का नाश होता है। उसी प्रकार कर्म के अंधकार नाम, गोत्र, अंतराय । वैसे इन ८ कर्मों के १४८ भेद भी या आवरण से आत्मा दिखाई नहीं देता। जैसे ही जीव किये जाते हैं। सचमुच देखा जाय तो कर्म के भेद तो ज्ञानरूपी दीपक को अपने भीतर जलाता है, कर्म का अनंत हैं, जितने प्रकार के विकल्प होते हैं, उतने ही कर्म अंधकार उसी समय नाश को प्राप्त होता है। विकल्प, के भेद हो सकते हैं। जिनवाणी में कर्म का सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार, बुद्धि व्यवसाय, मति, विज्ञान, चित, भाव या विश्लेषण देखने को मिलता है। परिणाम - ये सब एकार्थवाची है। यह जीव स्व-पर के कर्म के भेद एवं विश्लेषण के पीछे एक अनोखा भेद विज्ञान के अभाव में, एक में दूसरे की मान्यतापूर्वक वैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है और वह एक शुद्धात्मा या अनेक परिणाम करता रहता है जो झूठे हैं। जिनेन्द्र सिद्ध समान आत्मा का रहस्य उद्घाटन । जब विकल्प ही भगवान् ने अन्य पदार्थों में ऐसे आत्मबुद्धि रूप विकल्प कर्म है तो विकल्प रहित अवस्था ही कर्म रहित अवस्था छुडायें हैं, यही कर्म का नाश है। यही वैज्ञानिकता है - कर्म है। सिद्ध भगवान् के आठों कर्मों का नाश है क्योंकि के सिद्धांत की। जैसे प्रकाश के उदय से अंधकार का उनकी सकल कर्मों से रहित की अवस्था है। कर्म के नाश सहज व सरल है, वैसे ही ज्ञान के उदय से कर्म का घाति व अघाति रूप में भेद किया जाता है। उक्त आठ नाश सहज व सरल है। कर्म स्वयं भाग जाता है, अंधकार कर्मों में प्रथम चार को घातिकर्म कहते हैं व शेष चार को की भांति । | कर्म सिद्धांत की वैज्ञानिकता ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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