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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
अलग
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समझ पाना है । वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल स्वरूप में भाषाएँ न होकर बोलियाँ रही हैं । यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्राकृत कोई एक बोली नहीं, अपितु बोली समूह का नाम है । जिस प्रकार प्रारम्भ में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य वैदिक भाषा का निर्माण हुआ, उसी प्रकार काल क्रम में विभिन्न बोलियों को • अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न साहित्यिक प्राकृतों का निर्माण हुआ । अतः यह एक सुनिश्चित सत्य है कि बोली के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और उन्हीं से संस्कृत का विकास एक 'कामन' (Common) भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ और संस्कृत भाषा हैं । बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एक रूपता देने से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास नहीं होता है । विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर व्याकरण के नियमों से संस्कारित किया गया, तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। जैसे मागधी बोली से मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्राकृत का और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास हुआ। प्राकृत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची, महाराष्ट्री आदि भेद तत् तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि किसी प्राकृत विशेष से । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती से पूर्व का नहीं है । साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग मॉडल अपनाये हैं। वररुचि के लिए शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत है, जबकि हेमचन्द्र के लिए शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री ) प्राकृत है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है । अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत् ( ८.४.२८६) का अर्थ होगा शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा । क्या अर्धगामधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे?
प्राकृत विद्या, जनवरी- मार्च '६६ के सम्पादकीय में डॉ. सुदीप जैन ने प्रो. टाटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत किया है कि " श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप
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शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः अर्धमागधी के रूप में बदल गया ।" इस सन्दर्भ में हमारा प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में कहीं भी शौरसेनी की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं दिखाई देता । इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो. ए. एन. उपाध्ये का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव . है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ उत्तराधिकार
रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं ।
इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यंजनों के परिवर्तन, 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते हैं । दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर विद्वान् प्रो. खडबडी का कहना है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है । इस प्रकार यहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है, वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है, उसका स्पष्टीकरण भी आवश्यक है । सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्ट्री को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहें । यही कारण है कि उपाध्ये जैसे विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं' जबकि वह मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि अर्धमागधी का । अर्धमागधी में तो 'त' का न तो लोप होता है और न मध्यवर्ती असंयुक्त 'त' का 'द' होता है ।
जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
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