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________________ प्रवचन-पीयूष-कण विदेहावस्था हुआ। ऐसा हो नहीं सकता है। स्वर्ण एक साधारण धातु है। अन्य धातुओं से अधिक चमकीला होना उसका गुण जीवन जड़ और चेतन अवस्था का सम्मिश्रण है। है। अन्य धातुओं से पृथ्वी पर अल्प मात्रा में उसका जब चेतन अपनी अवस्था में और जड़ अपनी अवस्था में उपलब्ध होना उसके मूल्य का कारण है। इससे अधिक चला जाए अर्थात् दोनों पृथक् हो जाएं तो उसे पूर्णता कुछ नहीं है। समदृष्टि इस तथ्य-सत्य से परिचित होता कहा जाता है। जब तक चेतन जड़ का आश्रय लेता है। वह यह भी जानता कि स्वर्ण से जो खरीदा जा रहता है तब तक वह स्वतन्त्र नहीं होता। स्वाधीन होने सकता है वह भी नश्वर है। सुख देने वाला नहीं है। के लिए दूसरे का अवलम्वन छोड़ना होगा। जब तक भौतिक पदार्थ चेतना के अवलम्बन रहेंगे तब तक जीवात्मा समदर्शी राग और द्वेष से अतीत की साधना करता अपने स्वरूप में नहीं आ पाएगा। देह के रहते विदेह हो है। उसका स्वत्व और परत्व का भाव मिट चुका होता जाना, जीवन के रहते जीवन्मुक्त हो जाना यही हमारी है। वह किसी को अपना और किसी को पराया नहीं साधना का लक्ष्य है। हम देह में रहें पर उस पर हमारी ____ मानता है। चार दिवारियों से मुक्त होकर वह निस्सीम ममता न रहे, मोह न रहे, देह बुद्धि न रहे, यही विदेहावस्था नभ में विचरण करता है। महावीर का मुनि भी समदर्शी होता है। हम महावीर के मुनि हैं। पर हम समदर्शी नहीं बन पाए हैं। राग द्वेष समदर्शी की गाँठे हमारे अन्दर मौजद हैं। अपने श्रावक आ गए. समदर्शी वह है जो समता भाव से देखता है, समान वे वन्दना करें या न करें, पाटे के पास सहारा लेकर वैठ भाव से देखता है। समदर्शी सोने और पीतल को एक गए तो भी हम खुश होते हैं। उनसे मधुर आलाप-संलाप भाव से देखता है। उसके भावों में उथल-पुथल नहीं करते हैं। जिन्हें हम अपना श्रावक नहीं मानते, अमुक मचती है। राग अथवा द्वेष से उसकी विचार धारा दूषित साधु के श्रावक मानते हैं वे बेचारे तीन बार भी वन्दन करें नहीं बनती है। स्वर्ण के लिए उसके हृदय में राग और तो भी हम बोलते नहीं हैं। उनकी ओर देखते तक नहीं पीतल के लिए विराग नहीं जगता है। ऐसा नहीं है कि है। तो क्या यह समदर्शिता है? 'महाराज को वन्दन वह स्वर्ण के मूल्य से परिचित नहीं है। वह स्वर्ण का मूल्य किया लेकिन उन्होंने हमारी ओर देखा ही नहीं' यह जानता है। पीतल का मूल्य भी जानता है। परन्तु इन शिकायत समदर्शिता के अभाव में उभरती है। दोनों धातुओं को समक्ष पाकर भी उसके भावों में विचित्रता जब तक समत्व नहीं जागेगा तब तक यह विभाव नहीं आती है। वह समरस बना रहता है। बना रहेगा। तेरे और मेरे का वर्गीकरण होता रहेगा। स्वर्ण को समक्ष पाकर हमारी आंखों में चमक उतर जब समत्व जागता है तव चित्त उदार हो जाता है। साधु आती है। ऐसा क्यों? क्या स्वर्ण में इतनी शक्ति है कि के लिए, गुरु के लिए बहुत आवश्यक है कि उसके वह हमें आनंदित कर सके? यह हमारी भ्रान्ति है। हमने अन्दर समदर्शिता रहे / समदृष्टि रहे। राग और द्वेष दोनों यह मान लिया है कि स्वर्ण सुख का स्रोत है। स्वर्ण सुख अवस्थाओं में नुकसान है। जब राग आता है तो आसक्ति का स्रोत होता तो महावीर उसे कभी न छोड़ते। बड़े-बड़े आती है। मन बंधता है। द्वेष के कारण भी मन बंधता स्वर्ण स्वामी सबसे बड़े सुखी हो जाते। पर ऐसा नहीं है। | प्रवचन-पीयूष-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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