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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
देखने की उसके मन में उत्सुकता का उत्पन्न होना सहज है । " ( तत्त्व चिंतामणि- १ की भूमिका) स्वाध्यायशील पाठक की इसी जिज्ञासा को शांत करने का सुष्ठु सुनियोजित प्रयास हुआ है तत्त्व चिंतामणि में, जिसके पहले भाग में पच्चीस बोलों की, दूसरे भाग में नव तत्त्वों की और तीसरे भाग में छब्बीस द्वारों की सम्यक् विवेचना प्रस्तुत की गई है । दरअसल, अपने पितामह गुरुवर श्रद्धेय पं. रल शुक्लचंद्रजी महाराज के ग्रंथ 'जैन धर्म मुख्य तत्त्व चिंतामणि' से प्रेरित होकर ही मुनिश्री ने जैन दर्शन - तत्त्वों का सरल भाषा-शैली में परिचय प्रस्तुत किया है। परिचय भी पर्याप्त विस्तृत है । केवल 'जीव' तत्त्व का विवेचन ही लगभग तीस पृष्ठों में किया गया है। आत्मा की शरीराबद्ध स्थिति को भारतीय वाङ्मय में जीव माना गया है। यह कर्ता भी है और कर्म फल का भोक्ता भी है। इसके समस्त भेदों पर मुनिश्री ने आगम-प्रमाण देते हुए व्यापक विचार किया है । अंत में, मोक्ष तत्त्व पर प्रकाश डाला है, जिसका जैन दर्शन में अपना वैशिष्ट्य है । निर्बन्ध स्थिति में आत्मा सिद्धत्व प्राप्त करती है। सर्व कर्म-विमुक्त आत्मा ही सिद्ध है, जिसका ज्ञान सद्प्ररूपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन आदि द्वारों से किया जाता है । (दे. तत्त्व. चिंतामणि - २, पृ. १६२१६४) सिद्धात्माओं के पंद्रह भेदों तीर्थ सिद्ध, अतीर्थ सिद्ध, तीर्थंकर सिद्ध, अतीर्थंकर सिद्ध, स्वयंबुद्ध सिद्ध आदि का स्वरूप भी समझाया गया है। मुनिश्री अपने तात्विक विश्लेषण को आगमिक उद्धरणों की पाद-टिप्पणियों द्वारा प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं । संक्षेप में यदि यह कहा जाय कि 'तत्त्व चिंतामणि' जिज्ञासु अध्येताओं के लिए किसी ज्ञान - कोश से कम नहीं, तो अत्युक्ति नहीं होगी । ।
'शुक्ल प्रवचन' (चार खंड ) भी तात्विक विवेचन से परिपुष्ट है । यद्यपि इन्हें प्रवचन की संज्ञा से अभिहित किया गया है, पर इन्हें सामान्य उपदेश की कोटि में न रखकर गंभीर अनुचिंतन - साहित्य का अंग मानता ही समीचीन प्रतीत होता है। विद्वान् संतश्री ने अध्यात्म-योगी
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श्रीमद्राजचंद्र के 'आत्मसिद्धिशास्त्र' को आधार बनाकर जो व्याख्यान दिये, उनका सारगर्भित आख्यान है 'शुक्ल प्रवचन' । पंजाब की जैन नगरी मलेर कोटला में अपने गुरुवर श्रद्धेय पं. रत्न श्री महेंद्रकुमारजी महाराज के चरणों में बैठकर सन् १६७४ के चातुर्मास में मंगलवाणी के माध्यम से जिस ' आत्मसिद्धि शास्त्र' का पारायण श्री सुमनमुनि जी महाराज ने आरंभ किया था, वही वर्षों बाद सन् १६८८ ई. बोलारम (सिकंदराबाद) चातुर्मास में विशिष्ट आध्यात्मिक व्याख्यानों के रूप में परिणत हुआ । श्रद्धा और भक्ति के जलद निरंतर बरसते रहें तो चिंतन की भूमि को तो उर्वरा होना ही है । नैष्ठिक अध्ययन, सम्यक् चिंतन और आत्मिक मंथन से ही ज्ञान का अमृत प्राप्त होता है। केवल आत्म चर्चा करने से ज्ञान नहीं मिलता। कविवर जायसी ने कितना सुंदर कहा है:
'का भा जोग कथनी के कथे ।
निकसै जीव न बिना दधि मथे । । "
आध्यात्मिक परिश्रम करनेवाले ही आत्मज्ञान के पथ पर निरंतर बढ़ते रहते हैं ।
अस्तु; श्रीमद् राजचंद्र ने अपनी कृति ' आत्मसिद्धि शास्त्र' के ४३ वें दोहे में आत्मा-संबंधी जो तथ्य गिनाए हैं, उसका शास्त्रीय आधार स्थापित करतेहुए मनीषी प्रवचनकार श्रमण-तत्त्वों का निरूपण किया है । ये समानान्तर छंद
हैं:
आत्मा छे, ते नित्य छे, छे कर्त्ता, निज कर्म । छे भोक्ता, वली मोक्ष छे, मोक्ष उपाय सुधर्म ।। - ( आत्मसिद्धि शास्त्र, ४३ )
अत्थि जिओ तह निच्चा, कत्ता- भोत्ता य पुण्ण पावाणं । अत्थि धुवं निव्वाणं, तदुवाओ अस्थि छट्टाणेणं । । - ( प्रव. सारोद्धार द्वार १४८ गा. ६४१ )
'शुक्ल प्रवचन' के चतुर्थ खंड की भूमिका में वे श्रीमद्राजचंद्रजी के जैन- दर्शन से प्रभावित - प्रेरित होने की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं- “ प्रवचन में श्रीमद्जी के
अध्यात्म-मनीषी श्री सुमनमुनि जी का सर्जनात्मक साहित्य
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