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________________ प्रस्तावना केवल मांसल कलेवर मात्र ही जीवन नहीं है। समग्रतया जीवन की परिभाषा तब घटित होती है, जब वह चैतन्य-भावापन्न पांचभौतिक शरीर उन उदात्त गुणों पर संश्रित होता है, जो परम सत्य, परम सौंदर्य और परम श्रेयस् के उपजीवक हैं। “धृतः शरीरेण मृतः स जीवति" जैसी उक्तियाँ इसी तथ्य की परिचायक हैं। जीवन की अवधि केवल वर्तमान तक ही सीमित नहीं है। वह अतीत तथा भविष्य की शृंखला से भी जुड़ी है। काल त्रय का यह समवाय परस्पर एक विलक्षण सामंजस्य लिए हुए हैं। कर्मवाद, पुरुषार्थवाद, आत्मवाद एवं मुक्तिवाद आदि दार्शनिक पक्ष इसीसे प्रस्फुटित हुए हैं। व्यष्टि और समष्टि का जैसा पार्थक्य हम बहिर्दृष्ट्या देखते हैं, वैसा नहीं है। दोनों का एक ऐसा शाश्वत सम्बन्ध है, जिसका परिणाम यह सृष्टि है। व्यष्टि के अभाव में समष्टि की संकलना या सर्जना कदापि संभाव्य नहीं है और व्यष्टि के अपने निर्वहण में समष्टि का परोक्ष, अपरोक्ष सहयोग किंवा साहचर्य नितान्त वाञ्छित है। अतएव वैयक्तिक भूमिका का गति-क्रम समष्टि के प्रेयस् तथा श्रेयस् से भिन्न नहीं होता। वैदिक दर्शन का केवलाद्वैत, जैन दर्शन की सर्वक्षेमंकरी अहिंसा, बौद्ध परंपरान्तर्गत महायान की महाकरुणा का मूल उत्स भी इसी में सन्निहित है। निश्चय ही यह अत्यन्त गौरवास्पद है कि भारतीय मनीषा इसी चिन्तन धारा के परिप्रेक्ष्य में सदैव गतिशील रही। आज के युग में भी जहाँ प्रायः लोग भौतिकवाद की भ्रामकता में आकण्ठ-निमग्न हैं, प्रेयस्-लोलुप होते हुए श्रेयस् को विस्मृत करते जा रहे हैं, यह वैचारिक स्रोत शुष्क नहीं हुआ है। विश्व-वात्सल्य, समता, अनुकंपा, सेवा, तितिक्षा, विरति, ध्यान, समाधि आदि गुण इसीलिए जीवन के अलंकरण माने गये, क्योंकि इनकी व्यष्टि और समष्टि - दोनों के अभ्युदय तथा उन्नयन के साथ गहरी संलग्नता है। इन परमोदात्त गुणों के सर्वथा स्वीकरण, अनुभवन, तन्मूलक आत्म-परिष्करण तथा परमात्मसंस्करण - परमात्मभावापन्न स्वरूपोपलब्धि की अस्मिता संन्यास, श्रामण्य या भिक्षुत्व में उद्भासित हुई। सद्गुण-समादर एवं सम्मान इस देश की महनीय गरिमा रही है। इस गरिमा की परिणति सद्गुण-समर्जन और संवर्धन में कितनी अधिक रही, यह निम्नांकित सूक्तियों से प्रकट है - गुणि-गण-गणनारम्भे, न पतति कठिनी सुसंभ्रमाद्यस्य तेनाम्बा यदि सुतिनी, वद वन्ध्या कीदृशी भवति ? अर्थात् गुणी जनों की गणना के आरंभ में जिसकी ओर आदरपूर्वक तर्जनी नहीं उठती, वैसे पुत्र को जन्म देकर माता यदि पुत्रवती कही जाए तो बतलाएं, फिर वन्ध्या कौन होगी ? सूक्तिकार का यहाँ अभिप्राय यह है, वस्तुतः वही मात्रा पुत्रवती है, जो गुणवान् पुत्र को जन्म देती है - जिसका पुत्र गुण-निष्पन्न होता है। और भी कहा है - वरमेको गुणी पुत्रो न च मूर्ख-शतान्यपि । एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति, न च तारागणोऽपि वा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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