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________________ मामाका - - -- --- - साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ...... Son समस्त परिशुद्ध धर्म व्यापार जो मोक्ष में साधक हो उसे योग कहा है। जिस योग का फल कवल्य अथवा मोक्ष हो वही असम्प्रज्ञात योग या निर्विकल्प समाधि है। वह सर्व व्यापार-निरोध की अवस्था है। __कुन्दकुन्दाचार्य ने निश्चय चारित्र के अन्तर्गत योग का महत्त्वपूर्ण स्थान माना है। नियमसार के परम भक्तव्यधिकार में व्यवहार एवं निश्चय नय दोनों की अपेक्षा से भक्ति तथा योग का वर्णन किया है। श्रमण के लिए योग का स्वरूप बताते हुए कुन्दकुन्दाचार्य ने योग भक्ति के अन्तर्गत आत्मा द्वारा रागादि के परित्याग तथा समस्त विकल्पों के अभाव को उपादेय बताया है। एक पारिभाषिक गाथा द्वारा कन्दकन्दाचार्य योग को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं-"विपरीत अभिप्राय का त्याग कर जो जिनेन्द्र द्वारा कथित तत्त्वों में स्वयं को लगाता है वह निजभाव ही योग है। राजवातिक, सर्वार्थसिद्धि, गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि ग्रन्थों में भी समाधि, सम्यक्, प्रणिधान, ध्यान, निरवद्य क्रिया विशेष का अनुष्ठान, साम्य चित्त निरोध तथा योग को एकार्थवाची कहा है । "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः'' से सम्बन्धित उक्त जैन मन्तव्य योग के स्वरूप को और स्पष्ट कर देता है। मेरे मत में योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इस सूत्र से ही सर्वविध चित्तवृत्तिनिरोधः ऐसा अर्थ फलित होता है जो असम्प्रज्ञात योग का निर्देश करता है । पुरुष की स्वरूप प्रतिष्ठा जिस योग में होती हो वही योग अपेक्षित है । सम्प्रज्ञात योग तो यम-नियमादि की भाँति एक अङ्ग है, उसका सूत्र में उल्लेख आवश्यक नहीं है अतएव द्वितीय सूत्र की सार्थकता भी स्पष्ट होती है "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्" । यशोविजय द्वारा दिये गये लक्षणों में एक निषेधपरक है-"क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधो योगः" तथा दूसरा लक्षण विधिपरक है- “समिति गुप्ति साधारण धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्" जिसकी पुष्टि में हरिभद्रसूरि द्वारा दिये गये योग के लक्षण को प्रस्तुत किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि यशोविजय ने योगसूत्र पर लिखी गई टीकाओं को हृदयंगम कर अपनी जैनसम्मत व्याख्या प्रस्तुत की है। वाचस्पतिमिश्र की तत्व वैशारदी13 का आकलन यशोविजय ने "क्लिष्ट चित्तवृत्तिनिरोधो योगः" यह कहकर किया है तथा विज्ञानभिक्षु के योगवातिका' को ध्यान में रखते हुए -“समिति गुप्ति साधारण धर्मव्यापारत्वमेव योगत्वम्" कहा है और यह धर्म व्यापार द्रष्टा के स्वरूप के साक्षात्कार का हेतु होना चाहिए तभी वह योग कहलायेगा इस बात पर बल देने के लिए 'मोक्ष से संयोजित करने वाला विशुद्ध धर्म-व्यापार योग है' इस हरिभद्र के मन्तव्य को प्रस्तुत किया है। जैन श्रावक और श्राविका के जीवन में योग की प्राप्ति क्लिष्ट चित्तवृत्तियों के निरोधपूर्वक ही हो सकती है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पंच क्लेश अविद्यामूलक होने से गृहस्थ श्रावक को सर्वप्रथम अविद्यारूप मोहनीय कर्म पर विजय पाना आवश्यक है। अनित्य, अशुचि, दुःखरूप और अनात्मस्वरूप शरीर, इंन्द्रिय, पुत्र, मित्र, धन, वैभव आदि पदार्थों में ये नित्य हैं, पवित्र हैं, सुखरूप हैं और आत्मस्वरूप हैं, ऐसा अनात्मज्ञान अविद्या है। ये अविद्या आदि मोहनीय कर्म के औदयिक भाव विशेष हैं।16 क्लेशों को उत्पन्न करने वाले कर्मों के अबाधा काल के क्षीण न होने से कर्मों के निषेक का intuintuithiuttttituttitimarat 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' की जैनदर्शनसम्मत व्याख्या : राजकुमारी सिंघवी | ३६५ Education Internatiga. www.jaine nurna 154MARArters
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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