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________________ साध्वीरत्नयुष्याती अभिनन्दन वान्थ) Terever sammaN MARTERSNE 'यो ग श्चि त वृत्ति नि रोधः' को जैन दर्श न स मत व्या ख्या मBERainsaAIDAIRCRRIAमम्मम्मामाम्म्ममम HEMA Kimp4 .-राजकुमारी सिघवी [ शोध-छात्रा, संस्कृत विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, (जोधपुर) | 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' इस सूत्र के अनुसार योग शब्द के अर्थ की संगति समाधि अर्थ में प्रयुक्त युज् धातु से घञ् प्रत्यय होकर सम्भव है। योग शब्द के विभिन्न अर्थ-'सम्बन्ध' करना या जूड़ना, जीव का वीर्य अथवा शक्ति विशेष, आत्म प्रदेशों का परिस्पन्द या संकोच विस्तार, समाधि, वी काल, स्थिति आदि नाना अर्थों में से प्रस्तुत प्रसंग में समाधि अर्थ ही उपयुक्त है। योगभाष्यकार व्यास, तत्ववैशारदी टीकाकार वाचस्पतिमिश्र एवं योगवातिककार विज्ञानभिक्षु तथा राजमार्तण्डवृत्तिकार भोजदेव का भी यही मत है। इसीलिए पतञ्जलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा है। सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दो प्रकार के योग की व्याख्या पतञ्जलि ने की है। प्रस्तुत सूत्रगत चित्तवृत्तिनिरोध अर्थ करने पर सम्प्रज्ञात समाधि को योग लक्षण में समाहित नहीं किया जा सकता । अतः यशोविजय जी ने प्रस्तुत सूत्र में "क्लिष्ट चित्तवनि निरोघो योग" ऐसे परिष्कार का संकेत किया है। जिससे योग के लक्षण में सम्प्रज्ञात योग का भी समावेश हो सके । सम्प्रज्ञात योग में अक्लिष्ट चित्तवृत्तियाँ अथवा योगसाधक चित्तवृत्तियाँ संस्काररूपेण विद्यमान रहता है। भाष्यकार व्यास, वाचस्पतिमिश्र, विज्ञानभिक्षु, मोजदेव आदि सभी ने योग के अन्तर्गत सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात दोनों समाधियों का अन्तर्भाव किया है। भाष्यकार व्यास के अनुसार असम्प्रज्ञात समाधि में सर्व चित्तवृत्तियों का निरोध हो जाता है तथापि सम्प्रज्ञात समाधि में विवेकख्यातिरूप सात्विक वृत्ति विद्यमान रहती है अतः भाष्यकार ने 'सर्व' शब्द का ग्रहण सूत्र में न होने से सम्प्रज्ञात भी योग है ऐसा निर्देश किया है ।' एकान एवं निरुद्ध भूमिगत वृत्ति . . SANA 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' की जैनदर्शनसम्मत व्याख्या : राजकुमारी सिंघवी | ३६३ www.jaine
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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