SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 700
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .................. . . . . . . . ............. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . A साध्वीरत्न पुष्वती अभिनन्दन ग्रन्थ rearrantiryamanagermananesassam ME H RARNEnterta REPRTPHONORMATTERITEREST HanuareARRIERALA EmaintarNATRINCREENAS साधना के साथ आचरण का सम्बन्ध, नैतिक जीवन की मान्यतायें आदि विवाद के संकल्प जुड़े हए हैं, यद्यपि यम-नियम-शम-दम-स्वाध्याय-संत-संग आदि विधानों का उल्लेख मिलता है परन्तु दुर्भाग्य से इन संकल्पनाओं का मन-माना और विकृत अर्थ लगा लिया गया है-कारण मानक स्तर (Standard) विवाद का विषय है । अनुकरण सम्भव है क्या ? सबके लिए नियम, कुछ के लिए नियम, इत्यादि अपवादों ने मुख्य सिद्धान्त को विकृतियों से ढंक दिया है। अध्यात्म-साधना के अनुभव, साक्षात्कार अनुभूति का उल्लेख भी स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है। इन अनुभवों का विवेचन सम्भव है क्या? यह अनुभव इन्द्रियजन्य है क्या ? अतीन्द्रिय अनुभव भी हो सकते हैं -- इनका तुलनात्मक अध्ययन सम्भव होगा? उसका कुछ उपयोग होगा क्या ? सत्यासत्य का निर्णय कौन कर सकता है ? ऐसे अनेक प्रश्न खड़े हैं। अनुभूति का आदान-प्रदान प्रायः असम्भव है, ऐसा सिद्धान्त अस्तित्ववादी तत्ववेत्ता कहते हैं। अनुभूति के आदान-प्रदान ने धर्म और धार्मिक क्रियाओं में अनेक भ्रम खड़े कर दिये हैं। प्रायः अनुभूति में सामान्य स्वरूप (generalization) ढूँढ़ने की मनुष्य की कमजोरी ने धर्म की बड़ी हानि की है-भ्रम जाल खड़ा कर दिया है-लोक मान्यता । एकरूपता हूँढ़ने का, स्वयं पर विश्वास न होने का मानव का स्वभाव इसका कारण है। इसी कारण धर्म में, धार्मिक क्रियाओं में सामान्यीकरण की स्थिति आ गई या लाई गई और धर्म का विकृत स्वरूप विकसित हो गया, जो अशास्त्रीय है और इसीलिए नई पीढ़ी, जिस पर विज्ञान का प्रभाव अपरिहार्य स्वरूप में है धर्म के प्रति, धर्म-अनुभवों और धर्मगुरुओं के प्रति उदासीन है । नये अनुभव--स्वयं के अनुभव की मनःस्थिति-परिस्थिति इस सामान्यीकरण की मनोवृत्ति के कारण नष्ट हो गई है। मानव जीवन का स्वरूप सामाजिक है । समाज में प्रगति-उन्नति, विकास-उपलब्धि आदि स्तर मानक (rornis) माने जाते हैं। जीवन के हर स्तर पर तुलनात्मक वातावरण है । इस तुलनात्मक भाग-दौड़ में ही जीवन की यथार्थता मान ली गई है -समाज के विकास के लिए यह मनःस्थिति अति आवश्यक है। राष्ट्रों के लिए भी सम्भवतः यही मनःस्थिति नित नये संशोधन और मानवी भौतिक जीवन के विकास का कारण है। प्रगति की यह संकल्पना दुर्दैव से धर्म और धार्मिक जीवन -- धार्मिक साधना-क्रियाओं पर भी छा गई है । धर्म एक निजी अनुभव है, तुलना के लिए उसमें बहुत कम स्थान है। जो कुछ समानता दिखती है वह बाहरी रूप में ही है। 'धार्मिक' व्यक्ति भी इस तथाकथित समानता में रस नहीं लेता परन्तु समाजधर्म स्थापना के नाम पर धर्म का अनुभव न करने वालों परन्तु अनेक परिस्थितियों और कारणों से धर्म पर छाये हुए लोगों ने समुदाय बनाकर धर्म-अनुभवों का आडम्बरपूर्ण शास्त्र खड़ा कर दिया है। इस प्रकार के 'जीवन' आयाम से 'धर्म' को लाभ कम, हानि अ धर्म में व्यक्ति की स्वतन्त्रता समाज ने छीन ली है या उसने स्वयं लोभवश समन्वय (Adjustment) के झंडे के नीचे खो दी है। प्राचीन शास्त्रों में संकल्पनायें संकेतात्मक स्वरूप में हैं और उनमें व्यक्ति/साधक की स्वतन्त्रता की पूरी व्यवस्था है । उदाहरणार्थ-'मिताहार शौच स्वाध्याय' इत्यादि तत्त्व प्रत्येक साधक के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ/अवस्था प्रस्थापित करते हैं 'आहार' का मापदण्ड समाज नहीं हो सकता, साधक स्वयं होता है ! __ जप साधना में भी यही अवस्था है । अपनी इच्छा आवश्यकता अनुसार जप साधना अभिप्रेत है, इष्ट देव चुनने की भी स्वतन्त्रता है, समय, संख्या, स्थान आदि बाहरी आडम्बर हैं-भावना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है । साधक की अभिरुचि, शरीर की मर्यादा आदि का पूरा ध्यान रखा गया है । मार्गदर्शक तत्व नाम-साधना का मनोवैज्ञानिक विवेचन : डॉ० ए० डी० बत्तरा | ३६१ म -... BE D ARNEER E Ee CHINESELETELEBERRESEN FORImational ram
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy