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________________ साध्वीरत्न पुरवली अभिनन्दन ग्रन्थ) DiwanamamarguerURAHARINALAIMOSTRADARKaramcaDANGAnsweAssNARSanslation meetincimetaStaramTrantetrepratimantroPATIONZER KarishtiniantarvasanneindiatistinuatitutistirhittummitstiriremierrifmiritiiiiiiimalitientatioTHANEE .. Moszt -SAMRAVARTANDMINSajaywsyathendemy RI PANEERINGTNIMAR A ऐसी ही कुण्डलिनी का स्मरण साधक वर्ग चिरन्तन काल से करता आया है। शास्त्रकारों ने कुण्डलिनी के सम्बन्ध में अत्यन्त विस्तार से और अत्यन्त सूक्ष्मता से गम्भीर विचार व्यक्त किये हैं। 'रुद्रयामल' में कहा गया है कि-यह देवी (कुण्डलिनी) शक्तिरूपा है, समस्त भेदों का भेदन करने वाली है तथा कलि-कल्मष का नाश करके मोक्ष देने वाली है। कुण्डलिनी आनन्द और अमृतरूप से मनुष्यों का पालन करती है तथा यह श्वास एवं उच्छ्वास के द्वारा शरीरस्थ पञ्च महाभूतों से आवृत होकर पञ्चप्राणरूपा हो जाती है। कुडली परदेवता है। मुलाधार में विराजमान यह कुण्डली 'कोटिसूर्य प्रतीकाशा, ज्ञानरूपा, ध्यान-ज्ञान-प्रकाशिनी, चञ्चला, तेजोव्याप्त-किरणा, कुण्डलाकृति, योगिज्ञेया एवं ऊर्ध्वगामिनी आदि महनीय स्वरूप वाली है। रुद्रयामल के एक पद्य में कुण्डलिनी की स्तुति करते हुए यही बात इस रूप में कही गई है आधारे परदेवता भव-नताऽधः कुण्डली देवता, देवानामधिदेवता त्रिजगतामानन्दपुञ्जस्थिता । मूलाधार-निवासिनी विरमणी या ज्ञानिनी मालिनी, सा मां पातु मनुस्थिता कुलपथानन्दैक-बोजानना ॥ ३२/२१ ॥ अनुभवी आचार्यों की यह निश्चित धारणा है कि मानव-शरीर में ऐसी अनेक क्रियाओं के केन्द्र हैं जिनके अधिकांश भाग अवरुद्ध हैं, बहुत थोड़े भाग ही उनके खुले हैं और वे तदनुकूल कार्य करते हैं। शास्त्रों में उन्हें दैवी क्रिया कहा है, जिनका उपयोग करने के लिये व्यक्ति को स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है और वह प्रयत्न बाह्य-प्रक्रिया-साध्य नहीं, अपितु साधना-साध्य हो है। जब यह आधार-बन्ध आदि क्रियाओं के द्वारा समुत्थित होकर सुधा बिन्दुओं से विधामबीज शिव की अर्चना करती है तो आत्मतेज का अपूर्व दीपन हो जाता है । इसका गमनागमन अत्यन्त वेगपूर्ण है । नवीन जपापुष्प के समान सिन्दूरी वर्ण वाली यह वस्तुतः भावनामात्र गम्या है क्योंकि इसका स्वरूप चिन्मात्र और अत्यन्त सूक्ष्म है। सुषुम्ना के अन्तवर्ती मार्ग से जब यह चलती है तो मार्ग में आने वाले स्वाधिष्ठानादि कमलों को पूर्ण विकसित करती हुई ललाटस्थ चन्द्रबिम्ब तक पहुँचती है और चित्त में अपार आनन्द का विस्तार हुई पुनः आने धाम पर लौट आती है। अतः कहा गया है कि गमनागमनेषु जाङ्घिको सा, तनुयाद् योगफलानि कुण्डली । मुदिता कुलकामधेनुरेषा, भजतां वाञ्छितकल्पवल्लरी ।। कुण्डलिनी-प्रबोधन के विभिन्न प्रकार शास्त्र एवं अनुभव के दो पंखों के सहारे साधक अपनी साधना-सम्बन्धी व्योमयात्रा करता है और स्वयं के अनवरत अभ्यास तथा अध्यवसाय से निश्चित लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में 'एकं सद् विप्रा बहधा वदन्ति' के अनुसार एक सत्य का उद्घाटन करने के लिये उसका बहुविध कथन प्राप्त होता है, उसी प्रकार अनुभवों की भूमिका भी वैविध्य से अछूती नहीं रहती। इसका एक अन्य कारण यह भी होता है कि देश, काल एवं कर्ता की भिन्नता से तदनुकूल व्यवस्था का सूचन भी उसमें निहित रहता है। कुण्डलिनी योग : एक चिन्तन : डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी | ३२३ L ORAT www.jail 4GETTylis
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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