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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ LERRIERREE HAL स्थान सदा से ही भारतीय समाज में और विश्व के सभी अन्य सभ्य-सुसंस्कृत समाजों में, सदा ही परम सम्माननीय एवं पुज्य रहा है। आजकल 'सभ्यता' एवं 'संस्कृति' इन दोनों पदों को बहुत व्यापक एवं विविध रूपों में व्यवहृत किया जा रहा है पर यदि आप किसी से यों ही अकस्मात पूछ बैठे कि 'संस्कृति' क्या है ? तो वह उसका तुरन्त और तात्कालिक उत्तर न दे पाएगा। मानव सामाजिक प्राणी कहा गया है पर उसकी बडी विशिष्टता यह है कि वह सांस्कृतिक दृष्टि से एक समुन्नत प्राणी है । 'सांस्कृतिक' विशेषण संस्कृति से बना है और 'संस्कृति' पद का मूल है 'संस्कार' । किस भाँति बालक को सर्वप्रथम 'संस्कार' अपनी माता से प्राप्त होते हैं। विशेषतया उन संस्कारों का ग्रहण शिशु अपनी माँ से उस पाँच वर्ष तक के 'शैशव' में ग्रहण करने में, अत्यन्त आग्रही एवं दत्तचित्त रहता है जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। बड़े-बड़े दार्शनिकों एवं विद्वानों ने 'संस्कृति' की विविध परिभाषाएँ दी हैं। उन सभी में आचार्य नरेन्द्रदेव की यह व्याख्या, सर्वाधिक सुस्पष्ट एवं सूग्राह्य है कि 'संस्कृति' सूविचारों की खेती है। खेती को हरी-भरी रखने और सूफला बनाने के लिए किसान को पहले अपनी जमीन को परिष्कृत अथवा संशोधित करना पड़ता है। केवल ऐसी भूमि में ही उत्तम बीज बोये जा सकते हैं और वही अंकुरित होने की क्षमता रखते हैं। तत्पश्चात् उगे हुए पौधों को झाड़-झंखाड़ से रहित करना होता है । फिर उन्हें समयानुसार अच्छे पानी से सींचते रहना पड़ता है । किसान का यह काम अत्यन्त सावधानी, तत्परता एवं जागरूकता की अपेक्षा रखता है। कहना न होगा कि मानव को सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध और सक्षम बनाने के इस गरुतर कार्य में 'नारी' अथवा माता की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि उसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है। शब्दों में उसको व्यक्त किया जाना यदि असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है। इस दृष्टि से नारी का महत्त्व, मूल्यांकन से प्रायः परे ही जान पड़ता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में मां की महिमा उसकी एक प्रमुख जातीय विशिष्टता है जिस पर अधिकाधिक विवेचन सदा ही मंगलकारी एवं शिवंकर है। हमारे देश में एक सूक्ति बहुत पुरातन काल से प्रचलित है : 'गृहिणी इति गृहः' । अर्थात् गृहिणी ही घर है। विना गृहिणी के घर को 'भूतों का डेरा' कहा गया है जो सर्वांश में सत्य है। यह तथ्य सत्य और शाश्वत है और वह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में मान्य रहा है और रहेगा। घर को बनाने में, उसे चलाने में और उसे सुन्दर, कलापूर्ण एवं पनोरम बनाने में 'नारी' अथवा 'गृह लक्ष्मी' की महिमा महान है और उसकी बहुत अधिक विस्तार के साथ व्याख्या करने की कोई अपेक्षा भी नहीं है। मनुष्य की एक बड़ी विशेषता, जिसे समाजशास्त्री दुहराते रहते हैं, यह है कि वह एक सामाजिक प्राणी है । अर्थात् वह अकेला रहना नापसन्द करता है और अपने आस-पास, उसके सामाजिक साथी होवें, इसी में सुख समझता है । इसीलिए हम देखते हैं कि शारीरिक अभाव एवं मानसिक ताप-सन्ताप में रहकर भी मनुष्य समाज में ही बना रहना चाहता है । वह केवल दो प्रकार के दण्डों से ही भय मानता है-एक तो यह कि उसे समाज बहिष्कृत कर दिया जाए और दूसरे कि उसे किसी कारागार में डाल दिया जाए, चाहे वहाँ उसे सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ भी क्यों न उपलब्ध होवें। फिर यह 'समाज' क्या है जिसके प्रति मनुष्य इतना अनुरक्त है ? थोड़े शब्दों में समाज, मानवों का एक परिवार है । वह अनेक परिवारों का समूह है । परिवार की सीमाएँ गृह या घर है। जिसकी अधिष्ठात्री या संचालिका मानवीय विकास में नारी का स्थान, महत्व और मूल्यांकन : डॉ० इन्दिरा जोशी | २८३ FIL
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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