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________________ ............. . .... साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ - रहा । वैदिक युग की भाँति संतान प्राप्ति में पुत्र और पुत्री श्रमण संस्कृति में समान रूप से देखे जाते थे। नायाधम्मकहाओ से ज्ञात होता है 'कहणं तुमं वा दारयं वा दारियं व पया एज्जासि (१-२-४०)। बुद्ध की भाँति महावीर ने कभी नारी प्रव्रज्या में बाधा नहीं पहुँचायी। परवर्ती काल में दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यद्यपि मोक्ष को लेकर मतभेद अवश्य हो गया । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार नारी भी मोक्ष प्राप्त कर सकती है, पर दिगम्बर सम्प्रदाय इसे स्वीकार नहीं करता। यही नहीं परवर्ती काल के दिगम्बर ग्रंथों में तो उसकी श्वान, गर्दभ, गौ आदि पशुओं से भी तुलना की गयी है । श्वेताम्बर परम्परा यह आवश्यक नहीं गिनती कि मोक्ष के लिए नारी को पुरुष होना अनिवार्य है। पर, श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी दृष्टिवाद के अध्ययन में नारी को मान्यता नहीं देता तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि श्रमण संस्कृति में श्रमण को जो अधिकार व दायित्व प्राप्त हैं, वे श्रमणी को नहीं । श्रमणी साधु के द्वारा कभी वंदनीय नहीं समझी गयी । (यह संघीय व्यवस्था का एक पक्ष है, शास्त्रीय विधान नहीं)। भारतीय संस्कृति का विकास जिन आदर्शों में हुआ है उनमें नारी "सृष्टि का गौरव" और "धर्म का पावन प्रतीक" है । नर और नारी सांख्य के पुरुष और प्रकृति की भाँति हैं- शिव और शक्ति के समान वे एक दूसरे के पूरक हैं। दया, कोमलता, प्रेम, शांति और त्याग नारी के विशिष्ट गुण हैं । उसे "जायते पुनः" कहा गया है। पिता पुनः अपनी पत्नी ने उत्पन्न होता है ---इसी से वह "जाया" है-वैदिक परम्परा से लेकर महाकाव्यों के युग तक जीवन के सभी क्षेत्रों में उसकी महत्ता अक्षुण्ण रही है । महाभारत की विदुला अपने पुत्र संजय से कहती है "मुहूर्त ज्वलित श्रेयो, न तु धूमायितं चिरम् ।" कौरवों के पतन का कारण ही द्रौपदी का अपमान और तिरस्कार रहा । चौदह वर्षों के उपरान्त जब श्रीराम अयोध्या लौटते हैं तब कन्याएँ ही उनका स्वागत एवम् प्रथम अभिषेक करती हैं। जहाँ याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी उनसे ब्रह्मज्ञान की याचना करती है, वहाँ शंकराचार्य और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ में भारती (पत्नी : मण्डन मिश्र) मध्यस्थ का कार्य करती है । पतंजलि ने शस्त्र निपुण 'शक्तिकीः' नारियों का उल्लेख किया है । भारहुत की मूर्तियों में वे कुशल अश्वारोही के रूप में अंकित हैं। वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश के साथ आत्रेयी भी विद्याध्ययन करती थी। वराहमिहिर ने धर्म और अर्थ के लिए नारी समाज को आवश्यक गिना। उन्होंने आक्षेप लगाया कि साधुओं ने उनके गुणों की ओर आँख बंदकर उनकी दुर्बलताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है "अंगनानां प्रवदन्ति दोषान् वैराग्य मार्गेण गुणान् विहाय । आचार्य जिनसेन ने उन्हें सम्पत्ति में समान अधिकार दिए। उन्होंने घोषणा की विद्यावान् पुरुषो लोके सम्मुति याति कोविदः । नारी च तद्वती प्राप्ते, स्त्री सृष्टैिरग्रिमं पदम् ॥ जैन परम्परा में चन्दनबाला, राजीमती आदि अनेक नारियाँ अध्यात्म जगत की अक्षय सम्पदा हैं। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों में युवती कन्याएँ स्वच्छन्द जीवन यापन करती थीं और पतिवरण में उनकी आवाज निश्चयात्मक होती थी। उन्हें अपने पति की सम्पत्ति में पूर्ण अधिकार था। भारतीय चिन्तन में नारी को सर्वोच्च महता और मान्यता थी। उसे पुरुषाकार शक्ति के रूप में स्वीकार किया। जैन धर्म और परम्परा में भी तीर्थंकर के साथ उसकी शासन देवी रही। वह लौकिक और अलौकिक प्रेम की मंजूषा है-त्याग और आत्म-समर्पण की वह मूर्ति है । २४२ / छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान BEATाम - .... www.jainelibra
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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