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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ भारतीय संस्कृति और परम्परा में नारी । --प्रो. कल्याणमल लोढ़ा BHABHI.IMHHHHHHHHHHHमामामामा भारतीय संस्कृति और परम्परा में नारी के स्थान और महत्त्व को लेकर अनेक भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं। वैदिक काल, श्रमणसंस्कृति, ब्राह्मण, पौराणिक और मध्ययुग तक उसकी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति पर अनेक आक्षेप किये गये हैं। इन सबका काफी निराकरण हो चुका है फिर भी अब तक धूमिलता व्याप्त है।। वैदिककाल को ही लें। ऋग्वेद में ही अनेक तत्त्वों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं, जिन्हें देव-माताएँ या देव-कन्याएँ कहा गया है। अदिति, उषा, इन्द्राणी, इला, भारती, होत्रा, श्रद्धा, प्रपिन इसके प्रमाण हैं। इनमें अदिति का ही सर्वाधिक उल्लेख है। जिस प्रकार मिश्र निवासी 'मात' और यूनानी 'थेमिस' को मानते थे, उसी प्रकार आर्य अदिति को मित्र, वरुण, आदित्य, इन्द्र आदि की देव-माता के रूप में । अदिति के साथ दिति (दैत्य माता) का भी ऋग्वेद में उल्लेख है-वह भी देवी ही मानी गयी है। इसी प्रकार वाक् को भी देवी ही गिना गया है। अम्मृण ऋषि की पुत्री वाग्देवी एक सूक्त (१०-१२५) की ह्म षिका हैं और इसी प्रकार श्रद्धा भी। इला को मानव-जाति का पौरोहित्य करने वाली कहा गया है । लोपामुद्रा, घोषा आदि अनेक महिलाएँ ऋषिकाएँ थीं। देवीकरण के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी नारी अत्यन्त समाहृत थीं। 'गृहिणी गृहमुच्यते' ही उनका सामाजिक आदर्श था । कन्याओं का आदर था; वे परिवार का दायित्व निभाती थीं। अविवाहित कन्या पितृ सम्पत्ति की अधिकारिणी थी। स्त्री-शिक्षा का भी यथेष्ट प्रचार था । वे वेदाध्ययन करती थीं। अथर्ववेद ने तो यह आदेश ही दिया कि वही कन्या विवाह में सफल हो सकती है, जिसकी उचित शिक्षा-दीक्षा हुई हो। हारीत ने नारियों का विभाजन ही ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू (द्विविधाः स्त्रीयः ब्रह्मवादिन्यः सद्योवधवश्च) किया है। आपस्तम्बधर्म सूत्र (१-५१-८) और यमस्मृति में भी यही आलेख है। ब्रह्मवादिनी वेदाध्ययन करती थीं और सद्योवधू विवाह । एसे अनेक उदाहरण हमारे इतिहास में उपलब्ध हैं कि ब्रह्मवादिनी नारियों ने उत्कट पाण्डित्य का प्रमाण दिया । अनेक विद्वानों का विचार है कि वैदिक नारियाँ युद्ध में भी भाग २४० / छठा खण्ड : नारी समाज के विकास में जैन साध्वियों का योगदान www.jainelibre
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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