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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ या ज्ञान को परिभाषित करते हुए लिखा - प्रमाणनयैरधिगमः " अर्थात् जो ज्ञान प्रमाण और नय से प्राप्त किया जाय वही सच्चा ज्ञान है । जैन सिद्धान्त में वस्तुविषयक किसी एक दृष्टिकोण को नय माना है और पूर्ण सभी अंशों को ध्यान में रखकर कथन करने को प्रमाण कहा गया है। किसी सापेक्ष कथन में नयाधारित कथन है परन्तु उसमें अन्य अपेक्षाओं दृष्टिकोणों को नकारा नहीं जा सकता अन्यथा वह दुर्नय होगा और अग्राह्य होगा । जैन दर्शन का अनेकांत सिद्धान्त या स्याद्वाद इसी व्यापक, सापेक्ष और तर्क संगतता के आधारों पर वस्तु का निरूपण करता है । इस प्रकार का निर्दोष कथन, जिसमें एक दृष्टिकोण सम्पूर्ण के सन्दर्भ में और सम्पूर्ण दृष्टि को एक दृष्टिकोण के सन्दर्भ में व्यक्त किया जाता है, ही ज्ञानी का और उसके सन्तुलित सामंजस्यपूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक है । शिक्षा में भी इसी व्यापक और उदारता के दृष्टिकोण का विकास वांछित है जो शिक्षार्थी में समायोजन का अभीष्ट विकास कर सके । जैन दृष्टि से शिक्षा को विशेषताएँ (१) गुरु के सान्निध्य में शिक्षा प्राप्त करना - जैन शास्त्रों और ग्रन्थों में शिष्य के लिए 'अन्तेबासी' शब्द का प्रयोग हुआ है । 'अन्तेवासी' का अर्थ है गुरु के निकट रहने वाला । इसका तात्पर्य यह है कि शिष्य को शिक्षा प्राप्त करने हेतु गुरु के निकट रहना चाहिए। गुरु से शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए । गुरु जिस प्रकार अवधारणाओं को स्पष्ट कर सकता है, वह अन्य साधन से सम्भव नहीं । गुरु के जीवन से शिक्षार्थी जो साक्षात् ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह अन्य प्रकार से नहीं उपलब्ध कर सकता । गुरु शिष्य एक-दूसरे के निकट रहकर एक-दूसरे को समझ सकते हैं। गुरु शिष्य को समझ सकता है और शिष्य उससे अभीष्ट मार्गदर्शन प्राप्त कर सकता है । उत्तराध्ययन में इसी बात को एक गाथा से स्पष्ट किया गया है जिसमें 'वसे गुरुकुले णिच्चं ' कहकर विद्याध्ययन के लिए नित्य ही गुरु के पास गुरुकुल में रहने का निर्देश है । 11 (२) तपोनुष्ठानपूर्वक ज्ञानाराधना — जैन परम्परा में बताया गया है कि शिक्षार्थी छोटे-बड़े तप की आराधना करते हुए शिक्षा ग्रहण करे। उत्तराध्ययन सूत्र में तपोनुष्ठान करते हुए शिक्षा ग्रहण करने के लिए 'उपधान' शब्द का प्रयोग किया गया है ।" तपाराधना का एक शारीरिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है । सात्विक और हल्का भोजन करने से विकारों / दोषों की उत्पत्ति कम होगी एवं मानसिक शान्ति बनी रहेगी । इससे शिक्षार्थी अध्ययन में एकाग्रचित्त बन सकेगा । तपाराधन से आहार - निहार ( मल विसर्जन) की क्रियाओं में समय बचेगा जिससे अध्ययन में अधिक समय दिया जा सकेगा । तप ज्ञानाराधना में लगे दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त स्वरूप भी होगा । (३) विनयशीलता - शिक्षा का आधारभूत गुण - अहंकार या अभिमान भाव का त्याग शिक्षार्थी के लिए अत्यन्त आवश्यक है । जितना जितना विनय शिक्षार्थी में आता जायगा, उतना ही उतना उसका अभिमान गलता जायगा । यह अभिमान या अहंकार का भाव शिक्षार्जन क्रिया का एक बाधक तत्त्व है जो शिक्षार्थी को उन्नति की ओर अग्रसर नहीं होने देता । जैन विचारधारा में विनय को धर्म का मूल बताया है | श्रमण भगवान महावीर ने निर्वाण काल से पूर्व जो प्रवचन फरमाया उसमें विनय को प्रथम जैन विचारधारा में शिक्षा : चांदमल करनावट | २३५
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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