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________________ . ... . .. ... ... ......... ...... ............ . साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ HHHHHHHHHHHHHHHH अ नु स न्धा न की कार्य प्रणाली वि दे शी जैन विद्वानों के संदर्भ में H डा. जगदीश चन्द्र जैन # जैनधर्म और जैनदर्शन पर ढेरों साहित्य प्रकाशित हो रहा है मौजूदा शताब्दी में । एक से एक सुन्दर चमचामाता हुआ डिजाइनदार कवर, बढ़िया छपाई, आकर्षक सज्जा । लेकिन अन्दर के पन्ने पलटने से पता लगता है कि ठगाई हो गई-ऊँची दुकान, फीके पकवान । फिर भी सत्साहित्य की मांग बनी हुई है । देश-विदेश से कितने ही पत्र आते हैं : जैन धर्म पर कोई अच्छी सी पुस्तक बताइये जिसमें रोचक ढंग से जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों का वर्णन किया गया हो । दर असल, आजकल के अर्थ प्रधान युग में पुस्तक-लेखन और पुस्तक-प्रकाशन एक व्यवसाय बन गया है, फिर सत्साहित्य का सृजन कैसे हो ? डॉक्टर की पदवी पाने के लिये तो इतनी अधिक मात्रा में शोध-प्रबन्ध लिखे जा रहे हैं कि उनकी तरफ कोई देखने वाला भी नहीं, उनका प्रकाशन होना तो दूर रहा। विदेशों में ऐसी बात नहीं। जब मैं पश्चिम जर्मनी के कील विश्वविद्यालय में वसुदेवहिंडि पर शोध कार्य कर रहा था तो प्राच्य विद्या विभाग के हमारे डाइरेक्टर महोदय ने बताया कि मुझे छात्रों के अध्यापन पर इतना जोर देने की आवश्यकता नहीं, अपने शोध कार्य पर ही ध्यान केन्द्रित करना उचित है। और विश्वास मानिये, शोध कार्य के लिये जिन-जिन पुस्तकों की मुझे आवश्यकता हुई-वे बाजार में मोल मिलती हों या नहीं-उन्हें हजारों रुपया खर्च करके उपलब्ध कराया गया। कितनी ही अप्राप्य पुस्तकों को इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन से मंगाकर उनकी जेरोक्स कॉपी सुरक्षित की गई। नतीजा यह हुआ कि प्राचीन जैनधर्म के अध्ययन के लिये कील विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी अग्रगण्य समझी जाने लगी। जर्मनी के विद्वान् खूब ही कर्मठ पाये गये। शोध कार्य करने का उनका अपना अलग तरीका है। सामूहिक कार्य (टीम वर्क) की अपेक्षा वैयक्तिक कार्य पर अधिक जोर रहता है । अपना शोध-प्रबन्ध # लिखिये, उसे स्वयं टाइप कीजिये । निर्देशक को मान्य न हो तो उसमें संशोधन-परिवर्तन कीजिये । फिर भी अनुसन्धान की कार्य-प्रणाली विदेशी जैन विद्वानों के सन्दर्भ में : डॉ० जगदीशचन्द्र जैन | १७५ . . . . . . . . . motionalernational harivate. Pesurases HYPER HAMAR
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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