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________________ ........ u lusareesaanasasasssssssssesamirmassassssanscenesssansar साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ Anand जैन आगम में WWWWWWWWWWWNNNNNNN ४. प्रायश्चित्त : स्वरूप और विधि WWWWWWWWWWWWWWWWW डा. पुष्पलता जैन M-CA fit - NTRIEWERECm HARIWASI E प्रायश्चित्त साधक और साधना को विशुद्धि से सम्बद्ध, आंतरिक चेतना से उद्भूत, एक पवित्र आभ्यन्तरिक तप है जो किसी चारित्रिक दोष से मुक्त होने के लिए किया जाता है । साधना की निश्छलता और स्वाभाविकता साधक की अन्यतम विशेषता है। यह विशेषता यदि किसी भी कारणवश खण्डित होती है तो साधक पवित्र मन से उसे स्वीकार कर पुनः अपनी स्वाभाविक स्थिति में वापिस पहँच जाता है। वापिस जाने की इसी प्रक्रिया को प्रायश्चित्त कहा जाता है। प्रमादजन्य दोषों का परिहार, भावों की निर्मलता, निःशल्यत्व, अव्यवस्था निवारण, मर्यादा का पालन, संयम की दृढता, आराधना सिद्धि आदि उद्देश्य प्रायश्चित्त की पृष्ठभूमि में होते हैं।' आचार्यों ने प्रायश्चित्त के संदर्भ में प्रायः चार अर्थ किये हैं :(१) अपराध (२) लोक (३) प्राचुर्य और (४) तपस्या । अकलंकर और धर्मसंग्रहकार ने प्रायः का अर्थ अपराध करके 'प्रायश्चित्त' को अपराध-शोधन का एक साधन माना है। धवला' में इसे लोक वाचक मानकर ऐसी प्रक्रिया का रूप कहा जिससे साधर्मी और संघ में रहने वाले लोगों का मन अपनी ओर से विशुद्ध हो जाये । प्राचुर्य अर्थ होने पर इसका तात्पर्य है चित्त की अत्यन्त निर्विकार अवस्था और जब उसका अर्थ तपस्या होता है तब प्रायश्चित्त का सम्बन्ध तपस्या से संयुक्त चित्त हो जाता है। 1. तत्त्वार्थ राजवात्तिक, 9 22 .2. प्रायः साधु लोक. प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् ....."अपराधो वा प्रायः चित्तशुद्धिः प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम् अपराध विशुद्धिरित्यर्थः, वही, 9:22 : 3. (क) प्रायः पापं विनिर्दिष्टं चित्तं तस्य विशोधनम् । धर्म संग्रह, 3; (ख) पाव छिदइ जम्हा पायच्छित्त त्ति भण्णइ तेण । --पंचाशक सटीक विवरण, 16.31 4. प्रायः इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनोभवेत् । तच्चित्तग्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ।। -13.5, 4:26, गाथा 9 5. नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, 113 6. पद्मचन्द्र कोष, पृष्ठ 258 ons.on aman DISin ....... . ...... Des INDI BITTu INTur १३२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य NEE - www.jaineli + - + - -
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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