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________________ PH H HHHHHH Th a naiamara.... .................. साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ इसी प्रकार नाना मनौतियाँ हैं जिनके द्वारा हमारा निर्मल आत्मन् बन्दी बनता है/रहता है । मान कषाय का यही कौतुक कौशल है जो सामान्य प्राणी को सन्मार्ग से हटाकर उन्मार्ग की ओर ले जाता है। माया की महिमा असाधारण है। संसार की सपक्षता इसी कषाय पर निर्भर करती है। प्राणी जितना अधिक मायाचारी होगा, उतना ही अधिक वह सपक्ष संसारी होगा। संसार का आकर्षण व्यक्ति को धीरे-धीरे सालता है और जब उसका आर्जवत्व पूर्णतः दब जाता है तभी उसका जीवन वस्तुतः उधार का वन जाता है। वह अपनी स्थिति से कभी संतुष्ट नहीं रह पाता। वह सदा दूसरों को ठगने में अथवा धोखा देने में संतोष रस का आनन्द अनुभव करता है। इस प्रकार की कषैली चर्याएँ हमारे जीवन को प्रभावित किए रहती हैं । जो इस दल-दल से निकलना चाहता है अथवा उबरना चाहता है, उसे ये संसारी प्राणी अपने हास्य का पात्र बनाते हैं और इस प्रकार उनका सतत प्रयास रहता कि प्राणी उनके चक्र से मुक्त न होने पाए। लोभ का लावण्य निराला है। इससे छूटना साधारण साधक की बिसात नहीं । इसकी चिपकन बड़ी तीव्र होती है । अन्य कषायों की कसावट से ऊपर, सबसे ऊपर इसकी उड़ान होती है । सारी कसावटें हट सकती हैं किन्तु लोभ का प्रलोभ चिपका ही रहता है । इसमें कड़वाहट नहीं, मिठास होती है। इसके कौतुकों में अद्भुत प्रकार की कमनीयता है- कंचन, कामिनी और कुकर्म इसके प्रमुख उपादान हैं । इसके प्रभाव से प्राणी का चित्त विचित्र फिसलन से चिरंजीवी होता रहता है। पर-पदार्थों की नाना पर्यायों में तथा उनके क्षणिक परिवर्तनों में जो स्वयंजात आकर्षण होता है । उसके प्रलोभी प्राणियों में लोभ कषाय की पूर्णतः प्रभावना विद्यमान रहती है । इस कषाय के वशीभूत प्राणी मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। उन्हें सन्मार्ग की अपेक्षा उन्मार्ग को अपनाने में सुख का आभास होने लगता है। मकड़ी के जाले में फंसी मक्खी की भांति कषाय कौतुक व्यक्ति को कर्मजाल में जकड़ लेते हैं उससे निकल पाना कोई सुगम और सरल काम नहीं है । प्रश्न यह है कि इन कषाय चतुष्टय के चंगुल से मुक्त किस प्रकार हुआ जा सकता है ? कषायों से छुटकारा नरक, तिर्यंच तथा स्वर्ग गति में जन्म लेने वाले जीवों को भी सम्भव नहीं होता। इस प्रबन्धन से मुक्ति प्राप्त्यर्थ मनुष्य गति में जन्म लेना एक मात्र साधन है। सचर्या में षट् आवश्यकों की आराधना करने का उल्लेख मिलता है । देव दर्शन, गुरु उपासना स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये षट आवश्यक कहे गए हैं जिनकी आराधना करने से श्रावक की दिनचर्या अशुभ से शुभ और शुभतर होती है । उसके परिणामों में शान्ति और सन्तोष के संस्कार जागते हैं । क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच के दिव्य गुणों का अन्तरंग में जागरण होता है तब क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों की तीव्रता मन्द होती हुई अन्ततः समाप्त हो सकती है। उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से यह निष्कर्ष रूप से सहज में कहा जा सकता है कि कषाय ही आत्मा की विकृति का प्रधान कारण है । कषायों का अन्त हो जाना ही भव-भ्रमण का अन्त हो जाना है। जिनवाणी में प्रचलित प्रसिद्ध उक्ति कितनी सार्थक है-कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव । १३० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य DRE www.jainelibrate
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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