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________________ पायाam..........IMAtosree साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ क्रोधी के शरीरजन्य रक्त के सोलह सौ कण जलकर नष्ट हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में उसके सारे जागतिक सम्बन्ध भी प्रभावित हो जाते हैं । इस प्रकार क्रोध करना तो दूर क्रोध सम्बन्धी बातें करने से भी चित्त में दूषण लगता है। मान-कषाय राग-द्वेष प्राणी की सहज अवस्था को विकृत करता है । क्रोध और मान दोनों ही द्वेष से उत्पन्न होते हैं। निन्दा व्यक्ति में क्रोध पैदा करती है जबकि प्रशंसा से मान का उदय होता है। प्रतिकूलता में क्रोध जगता है और अनुकूलता में मान कषाय उबुद्ध होती है। कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, जाति, रूप तथा ज्ञान आदि अवस्थाओं में व्यक्ति का मद जाग्रत होते ही मान कषाय का जन्म होता है । मान कषाय के उत्पन्न होते ही व्यक्ति में अहं वृत्ति का पोषण होने लगता है । मान की द्वादश अवस्थाओं का उल्लेख भगवती सूत्र में उपलब्ध है । यथा(१) मान (२) मद (३) दर्प (४) स्तम्भ (५) गर्व (६) अत्युत्क्रोश (७) पर-परिवाद (८) उत्कर्ष () अपकर्ष (१०) उन्नत (११) उन्नतनाम (१२) दुर्नाम अपने किसी गुण पर मिथ्या अहंवृत्ति मान, अहंभाव में तन्मयता मद, उत्तेजनापूर्ण अहं भाव दर्प, अविनम्रता से स्तम्भ, अहंकार से गर्व, अपने को दूसरों से श्रेष्ठ कहना अत्युत्कोश, पर-निन्दा से परपरिवाद, अपना ऐश्वर्य प्रकट करना उत्कर्ष, दूसरों की हीनता प्रकट करना अपकर्ष, दूसरों को तुच्छ समझना उन्नत, गुणी के सामने न झुकना उन्नतनाम तथा यथोचित रूप से न झुकना दुर्नाम नामक मान की विभिन्न अवस्थाएँ उपस्थित होती हैं ।10 प्राणी की बहिरात्म-अवस्था में मान कषाय का जन्म-मरण होता रहता है। यहाँ पर को स्व माना जाता है और ऐसी मान्यता से मान कषाय का जन्म होता है। जब पर को पर और स्व को स्व मान लिया जाता है तभी प्राणी की ममत्व बुद्धि का अन्त हो जाता है और उसकी अन्तरात्म-अवस्था का प्रारम्भ हो जाता है। मान कषाय के उत्पन्न होते ही प्रेम और उससे सम्बन्धित सारे सम्बन्ध संकीर्ण और विकीर्ण हो जाते हैं। विचार करें कि जब सारे मान समान हो जाते हैं तभी प्रेम की उत्पत्ति होती है। इसी आधार पर मानवी-प्राणी के वैवाहिक संस्कार में दीक्षित होने से पूर्व वर-वधू की जन्म-पत्रिका के आधार का मिलान किया जाता है । जितने अधिक गुणों का मिलान हो जाता है--संजोग उतना ही शुभ और सुखद माना जाता है । मान जिसमें अधिक जाग्रत रहते हैं, प्रेमतत्त्व उसमें उतना ही गिरता जाता है। आत्मा का उदात्त गुण है ज्ञान, ज्ञानी का लक्षण है कि उसमें सदा विनय की प्रधानता रहती है। किन्तु ज्ञानी को जब अपने ज्ञान का मद उभरता है तो उसका सारा ज्ञान निस्सार और प्रभावहीन हो जाता है । एक घटना का स्मरण हुआ है । यहाँ उसी के उल्लेख से मैं अपनी बात स्पष्ट करूंगा। एक अंधेरी कोठरी में मैं अकेला एकाकी बैठा हुआ था । चित्त में आठ मदों के आकार और विकार पैदा हो चुके थे। अनुकूल वातावरण पाकर वे सभी साकार भी हो उठे थे । मेरे पिताश्री इंजीनियर हैं, मामा जी डिप्टी १२४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य THANIHOOT www.jaines
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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