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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । अथवा बल सर्वथा विद्यमान रहते हैं। इनका दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी, मोहनीय और अन्तराय कर्म प्रकृतियाँ घात किया करती हैं । शेष चार कर्मप्रकृतियाँ-वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र क्रमशः कर्म प्रकृति, अनुकूल तथा प्रतिकूल संवेदन अर्थात् सुख-दुःख के अनुभवों का कारण है। आयुकर्म प्रकृति के कारण नरकादि विविध भवों की प्राप्ति होती है। नामकर्म प्रकृति विविध शरीर आदि का कारण है और गोत्रकर्म प्रकृति प्राणियों के उच्चत्व एवं नीचत्व का कारण है। कर्म की तीव्रता और मंदता, कषायों की तीव्रता और मंदता पर निर्भर करती है। अतः यहां कषाय और उसके कौतुक पर संक्षेप में चर्चा करना हमें मुख्यतः अभिप्रेत रहा है। आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहा जा सकता है । यद्यपि क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार ही कषाय प्रसिद्ध हैं पर इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार की कषायों का निर्देश आगम में उपलब्ध है। कषाय को जानने और पहचानने के लिए अनेक दृष्टियाँ प्रचलित हैं-नोकषाय की दृष्टि से हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि, तथा मैथुन भाव उल्लिखित हैं परन्तु ये कषायवत् व्यक्त नहीं होती राग-द्वेष में गर्भित रहती हैं। आत्मा के स्वरूप का घात करने के कारण कषाय वस्तुतः हिंसा है। मिथ्यात्व सबसे बड़ी हिंसा है। विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से कषाय चार कोटि की मानी गई हैं । यथा(१) अनन्तानुबंधी (२) अप्रत्याख्यान (३) प्रत्याख्यान (४) संज्वलन इस प्रकार क्रोधादि के भेद से काषायिक आसक्ति को चार-चार भेद करके कुल सोलह प्रभेदों में विभक्त किया जा सकता है। सम्भव है कि किसी व्यक्ति में क्रोधादि की मंदता हो और आसक्ति की तीव्रता अथवा क्रोधादि की तीव्रता हो और आसक्ति की मंदता हो, अतः क्रोधादि की तीव्रता-मंदता को लेण्या द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और आसक्ति की तीव्रता-मंदता को अनन्तानुबंधी आदि द्वारा । कषायों की शक्ति अचिन्त्य है। कभी-कभी तीव्र कषायवश आत्मा के प्रदेश शरीर से निकल कर अपने शत्रु का घात तक कर आते हैं, इसे कषाय समुद्घात कहते हैं। ___ जैन परम्परा में कषाय के लक्षण सम्बन्धी अनेक रूप से विचार हुआ है। यहाँ पर संक्षेप में उसकी चर्चा करना असंगत न होगा। जो क्रोधादिक जीव के सुख-दुःखरूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्म रूप खेत का कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं और जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ मर्यादा या मेंड रूप हैं, इसलिए उन्हें कषाय कहते हैं। कषाय की चर्चा करते हुए सर्वार्थसिद्धिकार ने उसका लक्षण इस प्रकार व्यक्त किया है-कषाय अर्थात् क्रोधादि कषाय के समान होने से कषाय कहलाते हैं । उपमा रूप अर्थ क्या है ? जिस प्रकार नैय ग्रोध आदि कषाय श्लेष का कारण हैं उसी प्रकार आत्मा का क्रोधादि रूप कषाय भी कर्मों के श्लेष का कारण है। इसीलिए कषाय के समान यह कषाय है। राजवार्तिककार ने कषाय को वेदनीय कर्म के उदय से होने वाली क्रोधादि रूप कलुषता को कहा है क्योंकि यह आत्मा के स्वाभाविक रूप को कष देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है। ____कषाय जैन दर्शन में एक पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त है। कष् और आय इन दो शब्दों के योग से कषाय शब्द का गठन हुआ है। कष शब्द का अर्थ है कर्म अथवा जन्म-मरण और आय का अर्थ है आगम अर्थात् होना। जिससे कर्मों का आगम-आय अथवा बंधन होता है अथवा जिससे जीव को बार कषाय कौतुक और उससे मुक्ति : साधन और विधान : डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया | १२१
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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