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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ अवस्थान/ठहराव/केन्द्रित करना जैनागमों में ध्यान कहा आज हमारा समस्त जीवन हर क्षण आर्तता गया है ।90 ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तन धारा को एक रौद्रता में ही व्यतीत होता है। बहुत कम क्षण ऐसे होते ही ओर प्रवाहित करता है, जिससे साधक अनेकचित्तता हैं जो धर्म में और विरल क्षण ही शुक्लध्यान की ओर से दूर हटकर एकचित्त में स्थित होता है। वास्तव में एक- प्रवृत्त होते हैं। यह निश्चित है कि आज के व्यस्त एवं त्रस्त चित्तता ही ध्यान है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है जीवन में मन, विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, वृत्तियों, कि चित्त का निरोध करना ध्यान है। ध्यान-साधना में कामनाओं और विकार-वासनाओं आदि अन्य अनेक रूपों में ध्याता/साधक सदा ध्येय को देखा करता है । ध्याता ध्येय सक्रिय रूप से संश्लिष्ट रहता है जिसके दूषित-घातक की सम्प्राप्ति हेतु मन, वचन व काय (शरीर) का परिणाम आज प्रत्यक्षत. परिलक्षित हैं । एकीकरण योग करता है, जिसे जैनागमों में कायिक, वाचिक शिक्षा, व्यवसाय, सरकारी-गैर-सरकारी कार्यालयों तथा मानसिक ध्यान कहा गया है। कायिक-ध्यान में शरीर आदि में तथा वाहन चालन आदि में अर्थात् जीवन के का शिथिलीकरण/स्थिरीकरण किया जाता है। वाचिक प्रत्येक क्षेत्र में आज चित्त की एकाग्रता का सर्वथा अभाव ध्यान में वाणी का ध्येय के साथ में योग अर्थात् ध्येय होने से दिन-प्रतिदिन क्षण-प्रतिक्षण घटनाएँ-दुर्घटनाएं तथा और वचन में समापत्ति, दोनों का एकरस कर देना होता अनेक असावधानियाँ घटित हो रही हैं। वास्तव में चित्तहै तथा मानसिक ध्यान में मन का ध्येय के साथ योग एकाग्र का प्रबलतम एवं उत्कृष्ट साधन है-ध्यान । ध्यान किया जाता है ।91 के माध्यम से मन को चंचलता, अस्थिरता, अशान्ति तथा तपःसाधना में ध्यान का स्थान सर्वोपरि है। इसका व्यग्रतादि मिटती है। आनन्द-सुख के स्रोत जो भीतर सूप्त/ मूल कारण है कि ध्यान के द्वारा साधक में मानसिक शक्ति बन्द हैं, जाग्रत होते हैं/खुलते हैं । निश्चय ही ध्यान की और सामर्थ्य का पुञ्ज प्रकट होता है तथा कर्मों की जब- साधना मन को निविषय बनाने की अद्भुत प्रक्रिया है। दस्त शृंखलाओं का टूटना भी होता है अर्थात् कर्मों का इससे आत्मा के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है । आत्मक्षय होना होता है । कर्मक्षय होने पर साधक संसार के बोध-होने पर दुःख का सागर और अज्ञानता का बादल आवागमन की प्रक्रिया से मुक्त हो जाता है, मोक्षपद प्राप्त सान्त हो जाता है/कट-छंट जाता है। कर लेता है। १२. व्युत्सर्ग जैनागमों में आभ्यन्तर तपःसाधनान्तर्गत ध्यान को तप:साधना का यह अन्तिम चरण है। इसमें सर्व कहीं पर पांचवें और कहीं-कहीं पर छठवें क्रम में रखा प्रकार का त्याग अर्थात बहिरंग में शरीर-आहारगया है।94 चित्त का प्रवाह चहुंमुखी होने के कारण ध्यान उपकरणादि तथा अन्तरंग में राग-द्वेषादिक काषायिक को आत-रौद्र-धर्म-शुक्ल नामक चार भागों में वर्गीकृत वृत्तियों का छूटना होता है। साधक साधना की इस चरम किया गया है। जिसके अनेक प्रभेद भी स्थिर किये हैं। स्थिति पर पहुँच कर पूर्णरूप से निःसग, अनासक्त तथा इनमें आर्त और रौद्र ध्यान संसार के परिवर्धक हैं, अस्तु आत्मध्यान में लवलीन हो जाता है ।10 उसे यह अनुभव अप्रशस्त हैं, अशुभ हैं । किन्तु धर्म और शुक्ल निर्वाण के होने लगता है कि यह शरीर भोग, यश-प्रतिष्ठा आदि साधक हैं, अस्तु प्रशस्त एवं शुभ हैं । धर्मध्यान शुक्लध्यान समस्त बाह्य तत्त्वों में राग-द्वेष रखने की अपेक्षा इन सबमें को प्रारम्भिक अवस्था है। जीव के आध्यात्मिक विकास के उपेक्षा, उदासीनता रखने के लिये तथा आत्म तत्त्व के क्रम को गुणस्थान/जीवस्थान कहा जाता है। इसके चिन्तवन में ही लगाने के लिये बना है । वास्तव में यह चौदह क्रम/गुण जैनागमों में निर्दिष्ट हैं। 8 धर्मध्यान सातवें शरीर और उसका समस्त व्यापार निरर्थक है, निम्सार है। गुणस्थान तक और शुक्लध्यान आठवें से चौदहवें-गुणस्थान जबकि इस नश्वर-अचेतन शरीर में विराजमान चेतनशक्ति तक रहता है । चौदहवें गुणस्थान में साधक पूर्ण रूप से अर्थात् आत्म तत्त्व ही सार है, अस्तु उसका चिन्तवन स्व निर्वाण/सिद्धत्व को प्राप्त हो जाता है। एवं पर दोनों के लिये उपयोगी एव कल्याणकारी है। तपःसाधना और आज की जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६६
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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