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________________ सावारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ ... . ८. विनय किया । निश्चय ही विनय से तप, संयम और ज्ञान की सिद्धि होती है। यदि हमें इक्कीसवीं शती में जीना है तो आत्म-विकास हेतु, ज्ञान प्राप्त्यर्थ तथा कर्म-विनयन विनय को जीवन का एक आवश्यक अंग बनाना होगा, अर्थात् कर्म-निर्जरा के लिये संयम-साधना, अनुशासन तभी जीवन सार्थक एवं स्व-पर के लिये कल्याणकारी आराधना, अहंकार-विसर्जन, मृदुता-नम्रतापूर्ण व्यवहार, होगा। गुरुजन का सम्मान-आदर-भक्ति तथा गुणों की उपासना आदि मानवीय तत्त्वों का दैनिक जीवन में प्रयोग करना है. वैयावृत्त्य वस्तुतः विनय कहलाता है। यह परम सत्य है कि विनय आत्म-साधना में लीन, गुणों के आगार, तपस्वीमोक्ष का सोपान है, इससे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की संयमी, आचार्य-मनीषी, आदि की बहुविध क्षेत्रों में, त्रिवेणी प्रस्फुटित होती है। विनय के अनेक भेद-प्रभेद निष्कामभाव से, निःकांक्षित होकर अर्थात् मात्र श्रद्धा जैनागम में वणित हैं जिनकी संख्या कहीं पर तीन.66 भाव से सेवा-शुश्रूषा तथा उपासनादि करना वैयावृत्त्य कहीं चार तो कहीं पर पांच 8 अथवा सात तक कहलाता है । वैयावृत्त्य से साधक को जागतिक क्षेत्र में गिनायी गयी है। ऋद्धि, बल, यश, वैभव तथा ऐश्वर्यादि की उपलब्धि तथा आध्यात्मिक साधना में विनय का होना जहाँ आवश्यक आध्यात्मिक क्षेत्र में कर्मों की निर्जरा कर तीर्थङ्कर पद है वहीं सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में इसकी अर्थात् मोक्ष पदवी प्राप्ति होती है।73 सेवा-शुश्रषादि के उपयोगिता भी असंदिग्ध है। जिस समाज में यदि गुणों विविध आयामों के आधार पर जैनागम में इस तप के का सम्मान-पूजा न हो, वह समाज उन्नति की अपेक्षा अनेक प्रकार बताये गये हैं। 74 जिनका परिपालन कर अवनति के कगार पर होता है। निश्चय ही इस तप के साधक अशुभ से शुभ और शुभ से प्रशस्त शुभ की ओर माध्यम से हमारे व्यवहार में गुणों का आदर-सम्मान सदा उन्मुख रहता है। परिलक्षित है । आज शिक्षादि के क्षेत्र में जहाँ अनुशासन आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिकता के क्षेत्र में यह हीनता, उद्दण्डता, उग्रता, अहंकारितादि का वातावरण आच्छादित है, वहाँ जीवन में विनय का होना परम तप मनुष्य में परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् एक दूसरे का सहयोग व उपकार करने की वृत्ति,75 दया, करुणा, आवश्यक है क्योंकि शिक्षार्जन का आधार-स्तम्भ विनय स्नेह-वत्सलता, बंधुत्व-अपनत्व, विनय की भावना तथा होता है। जहाँ अभिमान होता है, वहाँ विनय नहीं होता, कर्तव्यपरायणता का बोध उत्पन्न कराता है । इस तप की नम्रता वहाँ टिक नहीं सकती। यह अभिमान आत्मा को नरक की ओर ले जाता है70 जबकि विनय उसे धर्म के महिमा को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इससे विश्व के समस्त जीवों में-अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, मजदूरपास पहुँचाता है क्योंकि धर्म का मूल विनय है और मोक्ष उसका अन्तिम फल है। विनयपूर्वक पढी गई विद्या लोक- मालिकों आदि के मध्य पडी खाइयाँ/भेद-भाव का समापन परलोक दोनों में सर्वत्र फलवती होती है। अस्त विनय से तथा धर्म-जातीय, भाषायी विवादों का शमन अर्थात हीन समस्त शिक्षा निरर्थक है । यह सत्य है कि विनयहीन अपेक्षित समता भाव का उदय होगा। व्यक्ति में सदा सद्गुणों का अभाव रहता है। कोई भी आज के विषाक्त युक्त वातावरण में, जहाँ सेवा लौकिक कार्य बिना गुरु की विनय के पूरे नहीं होते, अस्तु करने का विशाल क्षेत्र है, इस तप के माध्यम से, अपनी गुरुओं का अतिशय विनय करना अपेक्षित रहता है। सुख-सुविधाओं, एषणाओं-आकांक्षाओं को त्यागते हुए शिक्षार्जन करने का उद्देश्य भी यही है कि उससे विनय, अवश, अशक्त-असहाय, दीन-पीड़ितों, रोगियों को उपहास, बल. और विवेक की भावना जागृत हो। इतिहास साक्षी हीन, अनादर, तिरस्कार-घृणा तथा हेय की दृष्टि से न है कि विनय के बल पर ही अर्जुन विशेष धनुर्धारी हुए। देखते हुए उनकी तन-मन-धन से एकरूप होकर तन्मयता के अनेक संतों ने भी विनय के बल पर ही मोक्षमार्ग प्रशस्त साथ सेवा-शुश्रूषा करना परम उपयोगी एवं स्व-पर तपःसाधना और आज को जीवन्त समस्याओं के समाधान : राजीव प्रचंडिया | ६७
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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