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________________ HAHHHH साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जायेंगे । खाद्य संयम की प्रवृत्ति तथा अनावश्यक संचय मधुकरी45 से सम्बोधित किया जाता है। जिस प्रकार वृत्ति की कमी आज के अर्थ-वैषम्यजनित सामाजिक गाय स्थान-स्थान पर सूखा-हरा चारा बिना भेदभाव के समस्याओं का एक सुन्दर समाधान है । राष्ट्रपिता का यह चरती जाती है तथा भ्रमर पुष्प को बिना क्षति पहुँचाए. कथन कि "पेट भरो, पेटी नहीं," इस तप के व्यावहारिक अपना भोजन/पराग ग्रहण करता चलता है, उसी प्रकार रूप की सार्थकता से अनुप्राणित है। स्वास्थ्य की दृष्टि से श्रमण साधक भी भोजन-विशेष के प्रति ममत्व भाव न भी आवश्यकता से कम किन्तु उससे अधिक पचाया गया रखते हुए मात्र साधना हेतु शरीर संचालन हो सके इस प्रकृति अनरूप भोजन व्यक्ति को आरोग्य बनाता है।38 भावना के साथ अपनी उदर पूर्ति करता है। इस तप का यह निश्चित है कि इस तप के परिपालन से व्यक्ति नीरोग- दिन-प्रतिदिन किये जाने का निर्देश जैनधर्म में स्पष्टतः स्वस्थ रहता हआ सम्यक आराधना कर आनन्दसीमा को परिलक्षित है क्योंकि इससे साधक आहार कम करता आ स्पर्श कर सकता है । आज जहाँ एक ओर विकास के नाम शरीर को कृशकर सलेखना धारण करता है।48 भिक्षाचरी . पर मात्र भोग और शौक हेतु सुन्दर से सुन्दरतम आकर्षक का एक ही उद्देश्य है कि साधक में भोजन/आहार के प्रति राग की शनैः शनैः कम होते जाने की प्रवृत्ति और यह फैशनेबुल वस्त्रों-उपकरणों, साज-सज्जा के सामान, शारीरिक वृत्ति साधक के स्वयं भीतर के प्रस्फुटित होती है, किसी सौन्दर्य-प्रसाधन हेतु लिपस्टिक, क्रीम, पाउडर आदि तथा बाह्य-विवशता से नहीं । वास्तव में इस तप के माध्यम से चमड़े से विनिर्मित वस्तुओं का प्रयोग, भोग-उपभोग, व्यक्ति-व्यक्ति में आहार/भोजन पर जय-विजय प्राप्त करने जिनसे न केवल तियंचगति के अनगिनत जीवधारियों/ की शक्ति जाग्रत होने लगती है। फिर साधक का ध्यान प्राणधारियों का हनन ही होता है, अपितु इन चीजों के भोजन, नाना व्यंजनों-पकवानों में नहीं, साधना के विविध सेवन करने वाले स्वयं अनेक आपदाओं-विपदाओं तथा आयामों में रमण करता है। मानसिक-शारीरिक विकारों/तनावों/कष्टों से ग्रसित होते हों, वहाँ तप का यह ऊनोदर भाव कितना सार्थक प्रतीत ४. रस-परित्याग होगा, यह कहने की नहीं, अपितु अनुभवगम्य है । निश्चय इन्द्रियनिग्रह हेतु, आलस्य-निद्रा पर विजय प्राप्त्यर्थ ही इनमें उलझे व्यक्तियों को यह तप राहत देगा तथा एक तथा सरलता से स्वाध्याय-सिद्धि के लिये सरस व स्वानयी दिशा दर्शाएगा। दिष्ट, प्रीतिवर्धक तथा स्निग्ध आदि भोजन का मनसा-वाचा३. भिक्षाचरी कर्मणा के साथ यथासाध्य त्याग, रस-परित्याग तप कहलाता है।47 तपःसाधना में रस, विकृति, चंचलता ___ साधना के क्षेत्र में व्यक्ति को भोजन की कम, भजन की आवश्यकता अधिक रहती है। वृत्तिपरिसंख्यान/ अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न कर साधक के लक्ष्य में नाना वृत्तिसक्षेप40/भिक्षाचर्या अथवा भिक्षाचरी41 नामक तप प्रकार के व्यवधान उत्पन्न करते हैं । साधना के मार्ग में में भोजन, भाजन आदि विषयों से सम्बन्धित रागादिक इनसे अबरुद्धता आती है । अस्तु रस अर्थात् दूध, दही, घी, दोषों के परिहार्य हेतु व्यक्ति आत्म-विकास की साधना तेल, गुड़ आदि साधना के लिये सर्वथा त्याज्य हैं।48 करता है। साधना में शरीर व्यवधान उत्पन्न न करे इसके निश्चय ही ये रस विकृति एवं विगति के हेतु हैं।49 इन लिये साधक को अभिग्रह अर्थात् नियम-प्रतिशा-संकल्पादि रसों के त्यागने की विधि-नियम-प्रक्रिया-संख्यादि के आधार था सन्तोष वृत्ति-समताभाव के साथ विधिपूर्वक निदोष पर यह तप जैनागम में अनेक भागों में विभाजित किया पाहार/भिक्षाग्रहण करना होता है।42 भोजन/आहार में __ गया है ।50 संकल्पादि, परिमाण, संख्यादि-नियमादि के आधार पर आज जहाँ एक ओर भक्ष्य-अभक्ष्य का ध्यान न रखते हुए जैनागम में इस तप के अनेक भेद-प्रभेद स्थिर किये अभक्ष्य अर्थात् मांस, अण्डे, मद्य (शराब), धूम्रपान आदि गये हैं ।43 का सेवन, आधुनिक-अत्याधुनिक, साज-सज्जा से सुसज्जित, 'भिक्षाचरी' शब्द श्वेताम्बर परम्परा में गोचरी44/ सुख-सुविधाओं से संपृक्त, आकर्षक-खर्चीले होटलों में खाने ६४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य WARNATAEHRIMARVA
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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