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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ प्रवंचनाओं हेतु किये जाने वाले तप की अपेक्षा सम्यग्- आभ्यन्तर तप जिसमें प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, दर्शन (आस्रवादि तत्वों को सही-सही रूप में जानना और ध्यान, व्युत्सर्ग/कायोत्सर्ग नामक तप समाविष्ट हैं 23 बाह्य उन पर श्रद्धान रखना)-ज्ञान (पर-स्वभेद बुद्धि को तप बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होता है, इसे दूसरों के समझना)-चारित्र (भेदविज्ञानपूर्वक स्व में लय करना) द्वारा देखा जा सकता है। इसमें इन्द्रिय-निग्रह होता है रूपी रत्नत्रय का आविर्भाव करने के लिये, इप्टानिस्ट, किन्तु आभ्यन्तर तप में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा अन्तरंग इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा का विरोध करने की अपेक्षा परिणामों की प्रमुखता रहती है। दूसरों की दर्शनीयता की निरोध करने के लिये किये जाने वाले तप ही सार्थक तथा [ नहीं अपितु आत्म-संवेदनशीलता, एकाग्रता, भावों की नही कल्याणकारी माने गये हैं।18 शुद्धता-सरलता को प्रधानता रहती है।24 तप.साधना में जैन दर्शन में मर्यादा, व्यवस्था, नियम-विधि उसकी दोनों प्रकार के तपों का विशेष महत्व है। साधना में जाने हेयता-उपादेयता आदि पर जो वैज्ञानिक-विश्लेषण हुआ है, वाला साधक सर्वप्रथम बाह्य तपान्तर्गत 'अनशन' में प्रवेश वह विश्व के अन्य दर्शनों में दृष्टिगोचर नहीं है। स्वरूप करता है तदनन्तर शनैः-शनैः अभ्यास करता हुआ तथा और महत्तादि की दृष्टि से यहाँ तप अनेक संज्ञाओं- अनवरत साधना क्रम/बिन्दुओं से गुजरता हुआ आभ्यन्तर सरागतप, वीतरागतप, बालतप तथा अकामतप1 से अभि- तपान्तर्गत ध्यान-व्युत्सर्ग में प्रवेश कर साधना की परिपूर्णता हित है। रागादिक व्यामोह के साथ अर्थात् भोतिक को प्राप्त करता हआ आत्मा की चरमोत्कर्ष स्थिति में प्रतिष्ठा/वैभव-ऐश्वर्य की आकांक्षा, यशलोलुपता, स्वर्गिक पहुंच जाता है। साधना की इस प्रक्रिया में यदि साधक सुख प्राप्ति हेतु किया गया तप, सरागतप, राग मेटने अर्थात् बाह्यतप में दर्शित बिन्दुओं/भेदों में कदाचित परिपक्वता कर्म-शृंखला से मुक्त, कषायों से अप्रभावीतप, वीतरागतप, प्रात नहीं कर पाता तो निना प्राप्त नहीं कर पाता तो निश्चय ही वह आभ्यन्तर लए: यथार्थ ज्ञान के अभाव में अर्थात् अज्ञानता पर आधारित साधना के क्षेत्र में सही रूप में प्रवेश नहीं कर सकता मिथ्यादष्टिपरक तप, बालतप/अज्ञानतप तथा तप की इच्छा अर्थात बाह्यतप के बिना अन्तरंग तप और अन्तरंग तप के के विना परवशता-विवशतापूर्वक किया गया तप वस्तुत: बिना बाह्यतप निरर्थक प्रमाणित होते हैं, इनका सम्बन्ध अकाम तप कहलाता है। वास्तव में अकाम तप कोई तप योगाशित है या नहीं, यह तो मात्र शारीरिक-कष्ट-व्यायाम है। बालतप (१) अनशन कर्मबन्ध के हेतु हैं।20 इसमें कषाय शीर्णता की अपेक्षा पुष्टता प्राप्त करते हैं, अस्तु ये तप सर्वथा त्याज्य हैं। तपःसाधना के क्षेत्र में प्रविष्ट साधक को सर्वप्रथम सराग तप में राग विद्यमान होने से निम्न स्तर का माना अनशन तप के सम्पर्क में आना होता है। अनशन तप के गया है, इसके करने से मिलने वाले फल भी क्षणिक-अल्प- विषय में जैनागमों में विस्तृत चर्चा की गई है । ऐसी कोई मात्रा में होते हैं । किन्तु वीतरागता से अनुप्राणित तप भी क्रियायें जो तीन गुप्जियों-मनसा-वाचा-कमणा से भोजन उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला होता है, इसमें लेने में निमित्त का कार्य करती हैं, उन समस्त क्रियाओं समस्त राग-द्वेष का समापन होता है और समता-विराटता का त्यागना-छोड़ना अनशन कहलाता है। अनशन का के दर्शन होते हैं । अर्थ है.--- आहार का त्याग । चित्त का निर्मलता व्यक्ति के जैन दर्शन आत्म-विकासवादी दर्शन है। आत्मा के भोजन/आहार पर निर्भर हुआ करती है। अपरिमितविकास में एक सातत्य क्रम है, श्रेणीबद्धता है तथा अस्ख असेवनीय/असात्विक/अमर्यादित असन्तुलित आहार जीवन लित साधना है । इस दृष्टि से जैन दर्शन में तप को मूलतः में आलस्य, तन्द्रा-निद्रा, मोह-वासना आदि कुप्रभावों/ दो भागों में विभाजित किया गया है-एक बाह्य तप कुत्सित वृत्तियो को उत्पन्न कर साधना में व्यवधान उत्पन्न जिसके अनशन, ऊनोदरी/अवमोदर्य, वत्तिपरिसख्यान करता है, अस्तु आहार का त्याग शक्त्यानुसार सावधि भिक्षाचरी, रस-परित्याग, काय-वलेश, प्रतिसलीनता/ अथवा जीवनपर्यन्त तक के लिये किया जाता है। सावधि विविक्त शय्यासन नामक छह प्रभेद हैं, तथा दसरा में यह कम से कम एक दिन-रात्रि, उत्कृष्ट छह महीने ६२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य IIRAMA SCHOOL SEARN 4. . . Firmational www.jainelidi ....... . .
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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