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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ पुञ्ज भी है । 17 यही स्थिति परमसत्य के विषय में है । सभी दर्शन अपनी-अपनी दृष्टि से उसका निरूपण करते हैं, किन्तु उन सभी ज्ञात-अज्ञात दृष्टियों का समन्वित रूप ही परम सत्य है । समस्त दृष्टियों को सात वर्गों में जैन आचार्यों ने विभाजित किया है और इन्हें 'नय' नाम से अभिहित किया है। नयों की संख्या सात है--नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूड़ और एवम्भूत । इनमें से कोई नय (व्यवहार) भेदग्राही है, कोई (संग्रह) नय अभेदग्राही है । 28 कोई ( नैगम) नय संकल्प में स्थित भावी या भूत पदार्थ को विषय करता है तो कोई ( ऋजुसूत्र ) नय सामान्यजनोचित व्यवहारानुरूप सामान्य विशेष आदि अनेक धर्मों को विषय करता है, या कार्यकारण, आधार - आधेय की दृष्टि से वस्तु का औपचारिक कथन के आश्रयण को स्वीकृति प्रदान करता है । कोई (ऋजुसूत्र ) नय अतीत अनागत रूपों को ओझल कर मात्र वर्तमान प्रत्युत्पन्नक्षणवर्ती स्थिति को ग्रहण करता है तो कोई ( शब्द ) नय काल, लिंग, कारक आदि भेद पर आधारित वाच्य पदार्थ के भेद पर, और कोई ( समभिरूढ़ ) नय पर्याय भेद से वाच्य पदार्थ -गत भेद पर बल देता है - अर्थात् पदार्थगत स्थिति के अनुरूप ही पर्यायविशेष के शाब्दिक प्रयोग को उचित ठहराता है। कोई नय ( एवम्भूत) अतीत व अनागत पदार्थगत रूपों के स्थान पर वर्तमान अवस्था के अनुरूप ही उस पदार्थ के लिए वाचक शब्द का प्रयोग उचित ठहराता है । व्यवहार में हम सभी किसी न किसी दृष्टि (नय) का आश्रय लेते हैं । " उक्त सभी नयों को दो दृष्टियों में भी बाँटा गया है । वे हैं - द्रव्यास्तिक ( अभेदग्राही) व पर्यायास्तिक ( भेदग्राही ) । सत्यान्वेषी के लिए दोनों दृष्टियां समान रूप से आदरणीय मानी गई हैं, वे दो आँखों के समान कही गई हैं । 30 जिस प्रकार मथानी के चारों और लिपटी रस्सी के दो छोरों को दोनों हाथों में लेकर मक्खन निकाला जाता है, उस समय एक छोर को अपनी ओर खींचते हुए दूसरे छोर को ढीला किया जाता है, फिर दूसरे छोर को खींचते हुए पहले छोर को ढीला किया जाता है । उसी प्रकार सत्यान्वेषी को चाहिए कि वह उभय नय को क्रम-क्रम से प्रधानता - गौणता प्रदान करते हुए तात्त्विक ज्ञान प्राप्त करे 21 और ज्ञान प्राप्त करने के बाद प्रसंगानुरूप किसी दृष्टि को हेय या उपादेय करे 122 प्रत्येक नय अपने दूसरे नयों के साथ संगति / समन्वय / अविरोध रखे तो वह अनादि अविद्या ( मिथ्यात्व ) को दूर करने तथा मोक्षोपयोगी ज्ञान को उत्पन्न करने में सहायक हो सकता है, अन्यथा नहीं 125 वास्तव में प्रत्येक नय अपने आप में - अपनी अपनी मर्यादा में- सत्यता लिए हुए है, परन्तु अन्य नयों का निराकरण व विरोध प्रदर्शित करने से ही वह 'असत्य' बन जाता है 1 24 17. सन्मतितर्क - 3 / 17-18 18. अध्यात्मसार - 18 / 88 सर्वार्थसिद्धि तथा श्लोकवार्तिक आदि । स्याद्वाद 19. द्रष्टव्य - तत्त्वार्थसूत्र - 1 / 33, तथा उस पर राजवात्तिक, मंजरी - का. 28, आलाप पद्धति - 5, बृहद् नयचक्र - 185, हरिवंश पुराण - 58 / 41 । 20. समयसार -- 113-115 पर तात्पर्यवृत्ति । 21. पुरुषार्थसिद्ध युपाय - 225 22. क्षत्रचूडामणि - 2 /44, आदिपुराण - 20 / 156-157, उत्तरपुराण – 74 / 549, 56 / 73-74, नियमसार52, तथा तार्यवृत्ति गाथा - 43 ( नियमसार ) पर | 23. सर्वार्थसिद्धि - 1 / 33, राजवार्तिक- 1 / 33 / 12, सन्मतितर्क - 3/46, 1 / 21- 27, स्वयम्भूस्तोत्र - 1, आप्तमीमांसा - 108, गोम्मटसार- कर्म० 895, कषायप्राभृत-- 1 / 13-14, नयचक्र - श्रुत० 11, कार्तिकेयानुप्रेक्षा -- 266, धवला - 9 / 4, 1,45, अध्यत्मोपनिषद् ( यशोविजय ) - 1 / 36 1 24. सन्मतितर्क - 1 / 28, ज्ञानसा राष्टक ( यशोविजय ) - 32/21 'तत्त्वमसि वाक्य' : डॉ० दामोदर शास्त्री | ८३ www.jal
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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