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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ दार्शनिक विचारधारा के आदि स्रोत वेद और उपनिषद् माने गये हैं। इनमें न्याय, वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा दर्शन के साथ जैन-बौद्ध दर्शन के सिद्धान्तों का विवेचन नहीं छोड़ दिया जाता है। जो कुछ भी हो अन्य दर्शनों के साथ जैन दर्शन का भी स्वतंत्र विकास हुआ है। __ जैनदर्शन का अनेकांत सिद्धांत समन्वयात्मक दृष्टि के आदर्श को लिए हुए हैं, जो भारतीय दर्शन का सन्दह से मुक्त करके भारतीय संस्कृति के उत्तरोत्तर विकास का अनुपम साधन कहा जा सकता है । डा० मंगलदेव शास्त्री ने जैनदर्शन के प्राक्कथन में लिखा है "भारतीय संस्कृति के उत्तरोत्तर विकास को समझने के लिए भी जैनदर्शन का अत्यन्त महत्व है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परम-सहिष्णुता के रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में जैनदर्शन और जैन विचारधारा की जो देन है उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता"।। जैनदर्शन एक बहुतत्त्ववादी दर्शन है, जिसने वस्तु को अनन्तधर्मात्मक बतलाकर 'स्याद्वाद' की निर्दोष शैली को प्रतिपादित किया। अहिंसा की विचारधारा को जनसाधारण के जीवन के विकास के लिए उपयोगी कहा और कर्म के सिद्धान्त द्वारा व्यक्ति को महान् बतलाया। जैनदर्शन के क्षेत्र में प्रस्तुत पुराण का महत्व यह तो इस पुराण का नाम लेते ही सिद्ध हो जाता है कि यह जैनदर्शन का अनुपम रत्न है। डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य ने आदिपुराण को जैनागम के प्रथमानुयोग ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ कहा है तथा इसे समुद्र के समान गम्भीर बतलाया है। जैन-साहित्य का विकासक्रम तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति से माना जाता है। इन्होंने विक्रम की प्रथम शताब्दि में नवीन शैली से दार्शनिक दृष्टि को सामने रखकर तत्त्वनिरूपण किया था। उसी के आधार पर पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानंद आदि महान् आचार्यों ने सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, आदि महाभाष्य लिखे गये । जैसे-जैसे विकास होता गया, वैसे-वैसे ही दार्शनिकों ने जैन दार्शनिकता का अपनी-अपनी शैली में प्रतिपादन शुरू कर दिया। ८ वीं शताब्दि तक जैनदर्शन का अधिक परिष्कृत रूप सामने आ गया था। हवीं शती में जिनसेन ने भी पूर्वाचार्यों द्वारा जिन कथानकों, तत्त्वों का जिस रूप में वर्णन किया गया है, उसी का आधार लेकर काल वर्णन, कुलकरों की उत्पत्ति, वंशावली, साम्राज्य, अरहंत अवस्था, निर्वाण और युग के विच्छेद का वर्णन किया है। आदिपुराण के विषय में जिनसेन के शिष्य गुणभद्राचार्य ने पुराण तथा अपने गुरु की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि "आगमरूपी समुद्र से उत्पन्न हुए इस धर्मरूपी महारत्न को कौस्तुभ मणि से भी अधिक मानकर अपने हृदय में धारण करें, क्योंकि इसमें सुभाषितरूपी रत्नों का संचय किया गया है। यह पुराणरूपी समुद्र अत्यन्त गम्भीर है, इसका किनारा बहुत दूर है इस विषय में मुझे कुछ भी भय नहीं है, क्योंकि सब जगह दुर्लभ और सबसे श्रेष्ठ गुरु जिनसेनाचार्य का मार्ग मेरे आगे हैं, इसलिए मैं भी मागे का अनूगामी शिष्य प्रशस्त माग का आलम्बन कर अवश्य ही पूराण पार हो जाऊँगा" 1. जैनदर्शन पृ० 15-16 3. आदिपुराण 1/158-162 2. आदिपुराण प्रस्तावना-प० 50 4. उत्तर पुराण 43/35-40 आचार्य जिनसेन का दार्शनिक दृष्टिकोण : डॉ० उदयचन्द्र जैन | ७३
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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