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________________ I IDI ............... . .. साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ भारतीय न्याय के परिप्रेक्ष्य में ..... ........... जैन-न्याय में अनुमान-विमर्श, -डा. दरबारीलाल कोठिया जैन वाङमय में अनुमान का क्या रूप है और उसका विकास किस प्रकार हमा, इस सम्बन्ध में हम प्रस्तुत में विचार करेंगे । (क) षट्खण्डागम में हेतुवाद का उल्लेख जैन श्रुत का आलोड़न करने पर ज्ञात होता है कि षट्खण्डागम में श्रुत के पर्याय-नामों में एक हेतुवादनाम . भी परिगणित है, जिसका व्याख्यान आचार्य वीरसेनने 'हेतु द्वारा तत्सम्बद्ध अन्य वस्तु का ज्ञान करना' किया है और जिस पर से उसे स्पष्टतया अनुमानार्थक माना जा सकता है, क्योकि अनुमान का भी 'हेतु से साध्य का ज्ञान करना' अर्थ है। अतएव हेतुवाद का व्याख्यान हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, युक्तिशास्त्र और अनुमान शास्त्र किया जाता है। स्वामी समन्तभद्र ने सम्भवतः ऐसे ही शास्त्र को 'युक्त्यनुशासन' कहा है और जिसे उन्होंने दृष्ट (प्रत्यक्ष) और आगम से अविरुद्ध अर्थ का प्ररूपक बतलाया है। (ख) स्थानांगसूत्र में हेतु-निरूपण स्थानांगसूत्र में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है और इसका प्रयोग प्रमाण सामान्य' तथा अनुमान के प्रमुख अंग हेतु (साधन) दोनों के अर्थ में हुआ है। प्रमाण सामान्य के अर्थ में उसका प्रयोग इस प्रकार है१. हेतु चार प्रकार का है (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) उपमान, (४) आगम गौतम के न्यायसूत्र में भी ये चार भेद अभिहित हैं । पर वहाँ इन्हें प्रमाण के भेद कहा है । हेतु के अर्थ में हेतु शब्द निम्न प्रकार व्यवहृत हुआ है२. हेतु के चार भेद हैं (१) विधि-विधि-(साध्य और साधन दोनों सद्भावरूप हों) (२) विधि-निषेध-(साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप) (३) निषेध-विधि-(साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप) (४) निषेध-निषेध-(साध्य और साधन दोनों निषेध रूप हों) इन्हें हम क्रमशः निम्न नामों से व्यवहत कर सकते हैं(१) विधिसाधक विधिरूप अविरुद्धोपलब्धि (२) विधिसाधक निषेधरूप विरुद्धानुपलब्धि - - ५२ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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