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________________ HHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHA साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) जैन वा क्य-दर्शन -डा. सागरमल जैन वाक्य भाषायी अभिव्यक्ति की एक महत्वपूर्ण इकाई है । वाक्य की परिभाषा को लेकर विभिन्न दार्शनिकों के विचारों में मतभेद पाया जाता है। प्रस्तुत विवेचन में हम सर्वप्रथम जैन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित वाक्य के स्वरूप को स्पष्ट करेंगे और उसके बाद वाक्य की परिभाषा के सम्बन्ध में अन्य दार्शनिक ४ वधारणाओं को और उनकी जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षा को प्रस्तुत करेंगे तथा यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन दार्शनिकों ने वाक्य का जो स्वरूप निश्चित किया है, वह किस सीमा तक तर्क-संगत है। जैनवर्शन में वाक्य का स्वरूप Thi प्रभाचन्द्र प्रमेयकमलमार्तण्ड में वाक्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि "अपने वाक्यार्थ को स्पष्ट करने के लिए एक दूसरे की परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों का निरपेक्ष समूह वाक्य है।" वाक्य की इस परिभाषा से हमारे सामने दो बातें स्पष्ट होती हैं । प्रथम तो यह कि वाक्य की रचना करने वाले पद अपने वाक्यार्थ का अवबोध कराने के लिए परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं किन्तु उनसे निमित वह वाक्य अपने वाक्यार्थ का अवबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखता है। दूसरे शब्दों में, अपना अर्थबोध कराने में वाक्य स्वयं समर्थ होता है किन्तु पद स्वयं समर्थ नहीं होते हैं । जब सापेक्ष या साकांक्ष पद परस्पर मिलकर एक ऐसे समूह का निर्माण कर लेते हैं जिसे अपना अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रहती है, तब वाक्य बनता है। संक्षेप में साकांक्ष/ सापेक्ष पदों का निरपेक्ष/निःकांक्ष समूह वाक्य है । पदों की सापेक्षता और उनसे निर्मित समूह की निरपेक्षता ही वाक्य का मूल तत्व है। वाक्य का प्रत्येक पद दूसरे पद की अपेक्षा रखता है। वह दूसरे के बिना अपूर्ण सा प्रतीत होता है। अपने अर्थबोध के लिए दूसरे की आकांक्षा या अपेक्षा रखने वाला पद साकांक्ष पद कहलाता है और जितने साकांक्ष पदों को मिलाकर यह आकांक्षा पूरी हो जाती है, वह इकाई वाक्य कही जाती है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनूसार जहाँ वाक्य में प्रयुक्त पद सापेक्ष या साकांक्ष होते हैं वहां उन पदों से निर्मित वाक्य अपना अर्थबोध कराने की दृष्टि से निरपेक्ष या निराकांक्ष होता है। वस्तुतः परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाले सापेक्ष या साकांक्ष पदों को मिलाकर जब एक ऐसे समूह की रचना कर दी जाती है जिसे अपने अर्थबोध कराने के लिए अन्य किसी की अपेक्षा नहीं रखती है. तब वाक्य बन जाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार वाक्य में पदों की दृष्टि से सापेक्षता और पद-समह १. (अ) पदानां तु तदपेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यमिति । -प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ. ४५८ (ब) पदानां पुनवाक्यार्थप्रत्यायने विधेयेऽन्योन्यनिर्मितोपकारमनुसरतां वाक्यान्तरस्थ पदोपेक्षा रहिता संहतिर्वाक्यमभिधीयते । -स्याद्वादरत्नाकर, पृ. ६४१ ४० | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य tonal
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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