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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ स्थिति कांट जैसी है । वे प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों को अन्योन्याश्रित मानते हैं ] । अतः जैसे वे "प्रत्यक्षवादी नहीं है, वैसे ही बुद्धिवादी ( Rationalist) भी नहीं हैं । उनका मत कांट के आलोचनावाद ) (Criticism) के सन्निकट है । किन्तु कांट का आलोचनावाद शुद्ध ज्ञानमीमांसा का सिद्धान्त है और जैन प्रमाणवाद ज्ञानमीमांसा से अधिक मूल्यमीमांसा ( Axiology) से सम्बन्धित है । उन्होंने आलोचनावाद का प्रयोग अपने संव्यवहारवाद (Pragmatism) के लिये किया है । प्रमाण अर्थ का सम्यक् निर्धारण है और अर्थ हेय, उपादेय तथा उपेक्षणीय तीन प्रकार का है । इस प्रकार त्रिमुल्यीय अर्थ के विनिश्चय का साधन प्रमाण है । इन तीन अर्थों का विनिश्चय करने के अनन्तर उपादेय को प्राप्त करना और हेय तथा उपेक्षणीय का परिहार करना जैन प्रमाणवाद का मुख्य लक्ष्य है । सांव्यवहारिक होने के कारण जैन प्रमाणवाद कांट के आलोचनावाद से भी अधिक गहन और व्यापक है । इसने कांट के प्रत्यक्ष और संप्रत्यय दोनों को परोक्ष के अन्तर्गत रखा है और फिर परोक्ष का आलोचनात्मक समन्वय उस ज्ञान से किया है जिसे कांट तर्क - बाह्य मानता है और जो समाधि-ज्ञान या अलौकिक ज्ञान है । जैनियों का यह सांव्यवहारिक आलोचनावाद आधुनिक विश्व-संस्कृति और मुल्यमीमांसा के लिये अत्यन्त सारगर्भित है । यह सभी प्रकार के अनुभवों के सत्यापन का मानदण्ड प्रस्तुत करता है । इसका महत्व आधुनिक युग में बढ़ता जा रहा है, क्योंकि आज नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र के क्षेत्रों में भी तर्कशास्त्र का विकास हो रहा है । किन्तु जैन प्रमाणवाद इतना ही नहीं है, उसका समुचित परिचय प्राप्त करने के लिये जैनतर्कशास्त्र और इसके समूचे इतिहास का विचार करना है । जैनियों के लिये प्रमाणवाद एक तार्किक दृष्टिकोण है । वह तर्कशास्त्र का पर्याय है क्योंकि कम से कम माणिक्यनन्दि और हेमचन्द्रसूरि के न्याप-ग्रन्थों से यह स्पष्ट है। इस प्रकार प्रमाणवाद के विशेष विवेचन में समूचे तर्कशास्त्र के स्वरूप और महत्व का विवेचन अपेक्षित है | जो यहाँ थोड़े समय में सम्भव नहीं है । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम प्रमाणवाद का सामान्य विवेचन नहीं कर सकते हैं। स्वयं जैनियों के अनुसार परिभाषा या लक्षण द्विविध है -- सामान्य लक्षण और विशेष लक्षण । इस सिद्धान्त का उपयोग करते हुए हम यहाँ प्रमाणवाद का सामान्य विवेचन करना चाहते हैं । हमारा प्रयोजन यहाँ जैनतर्कशास्त्र की उन विशेषताओं को जानना है जो जैनियों के लिये आवश्यक हैं, जिनका विकास केवल जैनियों ने किया है और जिनका महत्व आज शुद्ध विज्ञान के युग के लिये भी बहुत बड़ा है । परन्तु ऐसा विवेचन करने के पूर्व हम पहले उन धारणाओं का निराकरण करना चाहते हैं जो जैनतर्कशास्त्र के बारे में अत्यन्त प्रचलित हैं । जैनतर्कशास्त्र के बारे में प्राचीन काल से ही तीन धारणायें चली आ रही हैं । एक, जैनतर्कशास्त्र भारतीय दर्शन के अन्य तर्कशास्त्रों से विशेषतः न्याय - दर्शन के तर्कशास्त्र से भिन्न है और जैन विद्वानों ने न्याय दर्शन और बौद्धदर्शन के तर्कशास्त्रों के सामानान्तर अपना स्वतन्त्र तर्कशास्त्र बनाने का प्रयास किया है । दूसरे, जैनतर्कशास्त्र का सीधा सम्बन्ध जैन- ज्ञानमीसांसा और जैनतत्त्व - मीमांसा से है । तीसरे, जैन दार्शनिकों का विचार है कि जैनतर्कशास्त्र अन्य भारतीय तर्कशास्त्रों से श्रेष्ठतर है । अब तर्कशास्त्र आधुनिक विकास के आधार पर इन तीनों धारणाओं को भ्रान्त सिद्ध किया जा सकता है । प्राचीनकाल में तर्कशास्त्र का आधार ज्ञानमीमांसा था और ज्ञानमीमांसा का आधार तत्त्वमीमांसा था । सम्भवतः इसी कारण जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने अपनी-अपनी तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा के दृष्टिकोण से अपने जैन प्रमाणवाद का पुनर्मूल्यांकन : डा० संगमलाल पाण्डेय | ३५ www.
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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