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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ ध्यान की यह स्थिति, पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण काल जितने समय में, 'वेदनीय' 'आयुष्य' 'नाम' और 'गोत्र' चार अघाति कर्मों का, एक साथ क्षय कर देती है। फलतः, सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने के साथ-साथ औदारिक, कार्मण और तैजस शरीरों से भी, उसे हमेशा-हमेशा के लिये मुक्ति प्राप्त हो जाती है । अब, वह अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोकाग्र तक पहुंचता है, और 'सिद्ध'/'मुक्त' वन कर ठहर जाता है701 आत्म-सिद्धान्तों का समालोचन चार्वाक-चार्वाक मान्यता के आचार्य मूलतः प्रत्यक्षवादी थे। उनके अनुसार पृथिवी-जल-तेज और वायु, इन चारों भूतों से ही सृष्टि की संरचना, और देह की उत्पत्ति होती है। देह में चैतन्य का समावेश भी, इन्हीं चारों के संयोग से होता है । इस तरह, इनके अनुसार, चैतन्य-विशिष्ट देह ही 'आत्मा' और इससे भिन्न आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। स्त्री. पत्र, धन, सम्पत्ति आदि से मिलने वाला सख ही स्वर्गसख है । और लोक व्यवहार में मान्यता प्राप्त 'राजा' ही 'परमेश्वर' है। तथा, देह का नाश हो जाना ही 'मोक्ष' है। चार्वाक की मान्यता है-'जो दिखलाई देता है, वही विश्वसनीय है'। इस मान्यता के अनुसार, दृश्यमान जड़ पदार्थ ही विश्वसनीय ठहरते हैं। 'आत्मा' 'ईश्वर'/'परमात्मा', पुनर्जन्म आदि तथा आस्तिक दर्शनों में माने गये जो तत्त्व इन्द्रियगम्य नहीं हैं, वे भी, अदृश्य होने के कारण विश्वसनीय नहीं हैं। ऐसे पदार्थों के प्रति जिज्ञासा को चार्वाकाचार्य कपोलकल्पना/मुर्खता मानते हैं। यही इनका जड़वादी भूतवादी सिद्धान्त है। भूतवाद' के अनुसार, प्रत्येक वस्तु, पहले जड़/अचेतन अवस्था में रहती है। बाद में, उनके सम्मेल से, उसमें चेतना उत्पन्न हो जाती है। यानी, स्वभावतः जड़ पदार्थों का परिणाम 'चेतना' है। यहाँ जो चेतन तत्त्व माना गया है, वह ज्ञान, बुद्धि और अनुभव से युक्त है। इस दृष्टि से, अब तक की सम्पूर्ण सृष्टि-प्रक्रिया में, एकमात्र मनुष्य ही महानतम है । फिर भी उसे शाश्वत नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वह, देश/काल की सीमितता में परिवेष्टित है । अतएव, वह एकदेशीय और नश्वर है। वस्तुतः, वह ऐसे ही तत्त्वों से उत्पन्न माना गया है। इस देहात्मवाद के बारे में आचार्य शङ्कर का कहना है- 'देह ही आत्मा है' यह प्रतीति ही जीवात्मा के समस्त कार्यों/व्यापारों में मूल कारण होती है । आत्मा को देह से भिन्न मानने वाले भी व्यावहारिक रूप में, देहात्मवादी सिद्ध होते हैं। किन्तु, यहाँ पूर्व उल्लिखित विवेचनों से यह स्पष्ट है, कि चार्वाकों के अलावा, अन्य समस्त तत्त्वज्ञों ने, आत्मा का स्वरूप, देह से भिन्न ही माना है। बौद्ध-बौद्धदर्शन में जीव, जगत् और जन्म के विषय में 'प्रतीत्य समुत्पाद' के आधार पर विचार किया गया है। यह एक मध्यममार्गीय सिद्धान्त है । इसके अनुसार, एक ओर तो वस्तु समूह के अस्तित्व के बारे में कोई सन्देह नहीं माना गया है। किन्तु, 'वे वस्तुएँ नित्य हैं' यह नहीं कहा जा सकता। क्योंकि, उनकी उत्पत्ति, अन्याश्रित मानी गई है। दूसरी ओर, वस्तु समूह का पूर्ण विनाश नहीं माना गया। बल्कि, माना यह गया, उनका अस्तित्व, विनाश के बाद भी, इस संसार में रहता है। इस तरह, बस्तुतत्त्व, न तो पूर्णतया नित्य है, न ही सर्वथा विनाशशील है। 72 । 70. उत्तराध्ययन-20/71/73, 71. शांकरभाष्य की प्रस्तावना और समन्व्य सूत्र भाष्य के अन्त में : 72. भारतीय दर्शन-डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० 351 १.६ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jainelibrary
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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