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________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ 5 मानव जीवन को महत्ता के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले गुणों में सेवा एक महत्वपूर्ण गुण है । जिसने स्वयं अपने आपको चिरकाल तक आदर्श परिस्थितियों में रखकर ज्ञान, अनुभव, तप के आधार पर विशिष्ट बना लिया हो, वही वैसा उपदेश देने का अधिकारी है । [] आत्म-सुधार से आत्म-सेवा के साथ-साथ पर-सुधार से पर-सेवा के प्रयत्न में ही स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय है । 1] जो जितना सहन कर सकता है, पचा सकता है, वह उतना ही बहादुर है, उतने ही अंश से आनंद का उपभोक्ता है । [] जो क्षमाशील है, उसके लिए संसार में कोई शत्रु नहीं, भय नहीं, अन्तर्द्वन्द्व नहीं । क्षमा विशाल अन्तःकरण की भावभि- सूर्य उदित होता है । क्षमा परिस्थितियों से तथा आन्तरिक हिंसाओं से बचने तथा हिंसा की परम्परा बढ़ने न देने का उत्तम प्रयास है । सत्य संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । संसार के समस्त बलों का समावेश सत्य में हो जाता है । सत्य का सर्वांगीण स्वरूप समझने के लिए दृष्टि का शुद्ध, स्पष्ट और सर्वांगीण होना बहुत आवश्यक है । व्यक्ति है । ! दूसरे के दोषों के प्रति उदार और सहनशील बनना ही क्षमा है । जैसे नमक की डली और नमक दोनों अलग-अलग नहीं है, एक ही हैं, वैसे ही सत् और सत्य दोनों एक ही है । क्षमा स्नेह की शून्यता को स्नेह से भरना है । [1] सतु वस्तु सत्य से व्याप्त है, सत् में सत्य ओतप्रोत है । सत् और सत्य दोनों में भेद नहीं है, क्षमा एवं स्नेह वही दे सकता है, जो स्व- दोनों एक ही हैं । भाव से महान् हो समर्थ हो । क्षमा का शब्दोच्चार ही क्षमा नहीं है, अपितु दूसरों की दुर्बलताओं व अल्पताओं को स्नेह की महान् धारा में विलीन करने की क्षमता को ही क्षमा कहते हैं । क्षमा विधेयात्मक अहिंसा को तीव्र और विकसित करने का अपूर्व उपाय है । ] सत्य को भली-भाँति समझने के लिए मनुष्य को सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की अग्नि में अविद्या को भस्म करना पड़ता है, तभी हृदय में सत्य का [ जो स्वयं तीनों काल में रहे जिसके अस्तित्व दूसरे को अपेक्षा न रहे, उसका नाम सत्य के लिए है । [] सत्य स्वयं विद्यमान रहता है, उसके ही आधार पर अन्य सारी चीजों का अस्तित्व निर्भर है । संसार में कोई भी वस्तु या स्थान ऐसा नहीं है जहाँ सत्य न हो । जिस वस्तु में सत्य नहीं है वह वस्तु किसी काम की नहीं रह जाती । सत्य अपने आप में स्वयं सुन्दर है । जगत् में सत्य से बढ़कर सुन्दर कोई वस्तु नहीं है । चिन्तन के सूत्र : जीवन की गहन अनुभूति | २३३
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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