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________________ . .... ........ O m साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ - अनगढ़ पत्थर मन को भाता नहीं किन्तु कितने ही मानवों की यह शिकायत है कि चिकना और चमकदार पत्थर मन को लुभाता है। वे सदा-सर्वदा प्रेम का अमृत बांटते रहते हैं किन्तु अनगढ़ जीवन किसी को आकर्षित नहीं कर सकता। उन्हें प्रेमामृत के बदले द्वष का जहर ही प्राप्त स्नेह और सद्भावना से युक्त जीवन ही दूसरों के होता है। मन को लुभाता है, मन को हरता है। दावानल को शान्त करने के लिए कुछ कुम्भ मानव को अपनी झठी प्रशंसा भी पसन्द पानी पर्याप्त नहीं होता, उसके लिए आवश्यकता है और सच्ची निन्दा वह सुनना भी पसन्द नहीं होती है हजार-हजार धाराओं के रूप में बरसने करता इसलिए किसी की निन्दा न करो और किसी वाले पानी की। को प्रसन्न करने के लिए व्यर्थ की प्रशंसा भी न करो। विपदा मानव को नई दृष्टि देती है। सर्दी, प्रशंसा को सुनकर वह व्यक्ति गुमराह हो जायेगा गर्मी और वर्षा से यदि मानव व्यथित न होता तो और साथ ही वह प्रशंसा आत्मवंचना भी है। गुणी भव्य भवनों की सुदीर्घ पंक्तियाँ जगमगाती नहीं। के गुणों का संकीर्तन करना गुणानुराग का प्रतीक है। चलने से मानव क्लान्त न होता तो तीव्रगामी वाहनों का आविष्कार न होता। यदि भख उसे 7 अज्ञानी और ज्ञानी में यहो अन्तर है अज्ञानी दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा सुनकर पीड़ित न करती तो खेती, व्यापार, व्यवसाय आदि विकसित न होते। सभ्यता नहीं पनपती और खुश होता है तो ज्ञानी स्वयं की निन्दा और दूसरों की प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होता है। दोनों में अपनी कर्मयुग का प्रारम्भ नहीं होता। और पराई का ही भेद है । 0 कितने ही व्यक्तियों का चिन्तन है कि सभी के साथ एक सदृश व्यवहार होना चाहिये। फिर प्रशंसा सुनकर मानव अन्धा बन जाता है। भले ही वह धनवान हो या निर्धन, बुद्धिमान हो या उसे चिन्तन करने का अवकाश नहीं रहता । पर बुद्ध । क्योंकि मानव-मानव एक है। आलोचना सुनकर मानव उद्विग्न तो होता है और पर उनका चिन्तन गहराई को लिए हुए नहीं । उसके प्रतिकार हेतु प्रयत्न भी करता है किन्तु उसके समान जाति होने से व्यक्तित्व में निखार नहीं मुंदे हुए नेत्र उद्घाटित हो जात हैं और वह सम्मल आता । हीरे, पन्ने, माणक, पुखराज नीलम आदि जाता है। पत्थर ही होते हैं पर वे अपने गुणों के अनुरूप आदर वासना के बीज बहुत ही बारीक होते हैं। पाते हैं। जो बड़े-बड़े साधकों को भी दिखलायी नहीं पड़ते।। ] मानव की तीन अवस्थाएँ हैं-बाल्यावस्था वे सोचते हैं हमारे मन की भूमि बिल्कुल साफ है युवावस्था और वृद्धावस्था । बाल्यावस्था में चपलता पर उन्हें पता नहीं कि वासना के बीज भी घास के । होती है, युवावस्था में जोश होता है और वृद्धाबीज की तरह होते हैं जो अनुकूल पवन और वर्षा वस्था में होश होता है। बालक निश्चित होता है, होते ही उग आते हैं। अत. साधक को सतत साव युवक कर्तव्य परायण होता है और वृद्धत्व में अनुधान रहना चाहिए। भव का अमृत होता है। । प्रत्येक मानव के पास मन है। मन होने / बालक कार्य करने के पूर्व और पश्चात् पर भी प्रत्येक मानव मनस्वी नहीं है। सभी महि- सोचता नहीं, युवक जोश में कार्य कर लेता है लाओं के अंग तो होते हैं पर सभी महिलाएँ अङ्गना उसके पश्चात् सोचता है किन्तु वृद्ध कार्य करने के नहीं होती। पूर्व सोचता है और फिर करता है । २२८ | तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन www.jained
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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