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________________ Tru जाननन्दन ग्रन्थ क्षमा-क्षमा एक महत्त्वपूर्ण गुण हैं जो समर्थ व्यक्ति होता है, वही क्षमा के पवित्र-पथ पर बढ़ सकता है । क्षमा गुण पर चिन्तन करते हुए महासती पुष्पवतीजी ने लिखा है-"यदि कोई मनुष्य क्रोध से ही क्रोध को वश में करना चाहे तो वह सफल नहीं हो सकता। बैर से बैर सकता। शेर को मच्छर काटे और वह यह सोचे कि मैं इन मच्छरों को मार डालूं तो उसके लिए ऐसा करना असम्भव-सा है । वह थक जायेगा, पर मच्छरों का सफाया नहीं कर सकेगा। इसी तरह क्रोध से क्रोध जीता नहीं जा सकता। क्रोधी को कोई चाहे जितने उपदेश दे, उससे वह सुधरता नहीं है, वह तो क्षमा से ही, सहनशीलता से ही सुधर सकता है ।.... क्षमा का शब्दोच्चार ही क्षमा नहीं है; अपितु दूसरों की दुर्बलताओं व अल्पताओं को स्नेह की महान धारा में विलीन करने की क्षमता को ही क्षमा कहते हैं। इसलिए जैन धर्म के महान् पर्व संवत्सरी पर क्षमा देना और क्षमा माँग ने की पवित्र परम्परा है।" सत्य-सत्य संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। संसार में जितने भी बल है, उन सबमें सत्य का बल सबसे बड़ा बल है । सत्य पर चिन्तन करती हुई महासतीजी ने कहा- “सत्य का व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से अर्थ होता है 'कालयये तिष्ठतीति सत् तस्यभावः सत्यम्' अर्थात् जो तीनों काल में विद्यमान रहे, एक रूप रहे, वह सत् कहलाता है, उसका भाव हैसत्य । सत्य यानी होना । सत् से सत्य बना है, जिसका अर्थ है-'है पन'। जैसे नमक की डली और नमक दोनों अलग-अलग नहीं हैं, एक ही है, वैसे ही सत और सत्य दोनों एक ही हैं। सत वस्त सत्य से व्याप्त है, सत् में सत्य ओतप्रोत है । सत् और सत्य दोनों में भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं। सत् का 'अर्थ है-विद्यमान, नित्य, स्थायी । वह जिस विद्यमानता--है पन से पूर्ण व्याप्त है, वही सत्य है। __ जो स्वयं तीनों काल में रहे, जिसके अस्तित्व के लिए दूसरे की अपेक्षा न रहे, उसका नाम सत्य है । सत्य स्वयं विद्यमान रहता है, उसके ही आधार पर अन्य सारी चीजों का अस्तित्व निर्भर है। सत्य के लिए किसी दूसरे के आधार की जरूरत नहीं है।" अचौर्य व्रत-परम विदुषी महासतीजी किसी भी विषय पर प्रवचन करती हैं तो उस विषय के तलछट तक पहुँचती हैं । आगम, दर्शन और विविध चिन्तकों ने उस विषय में क्या-क्या बातें कहीं हैं, उस पर प्रकाश डालती हैं । और विषय का विश्लेषण इस प्रकार करती है कि विषय सहज समझ में आ जाता है । देखिए अचौर्य व्रत पर चिन्तन करते हुए इस प्रकार प्रकाश डाला है-"बिना दी हुई अथवा वस्तु के स्वामी की आज्ञा अथवा अनुमति लिए बिना किसी वस्तु को ले लेना, अपने पास रख लेना, अपने अधिकार में कर लेना अथवा उस वस्तु का उपयोग-उपभोग कर लेना चोरी है। चोरी का यह लक्षण परिवार, समाज, देश, प्रान्त, राष्ट्र सर्वत्र व्यापक है। परिवार में यद्यपि सभी का समान अधिकार माना जाता है, सभी पारिवारिक संपत्ति के स्वामी माने जाते हैं, पिता की संपत्ति पर पुत्र का अधिकार होता है, फिर भी यदि पुत्र बिना पिता की अनुमति के चुपचाप ही उसके पर्स से रुपये निकाल ले जाता है, अथवा माता की पेटी से कोई आभूषण निकाल ले जाता है तो पुत्र का वह कर्म चौर्य कर्म कहलाता है और उसकी उसे ताड़ना-तर्जना दी जाती है।' २१० / तृतीय खण्ड : कृतित्व दर्शन PROAAPP www.ia
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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