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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ fiill """"""""""TITHHTiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii i iii __ माता तीज कुँवर ने कहा-मेरी स्वयं की उत्कृष्ट भावना दीक्षा लेने की है पर मैं तो अब कैसे दीक्षा ले सकूँगी ? मेरे जीवन का कोई भरोसा नहीं है । मैंने कितने अशुभ कर्म बाँधे हैं ? जिसके कारण मुझे यह अन्तराय आ गई । मेरे भाग्य में लिखा होगा, सो होगा । आप इस शुभ मुहूर्त में सुन्दरि को तो दीक्षा प्रदान कर ही दें । यदि मेरी मृत्यु हो गई तो फिर सुन्दरि की दीक्षा होना बहुत ही कठिन है। सारे पारिवारिकजन धर्म परायण होते हुए भी दीक्षा के नाम पर विरोधी बन गए हैं । अतः आप मेरी अन्तिम इच्छा को मान देकर दीक्षा प्रदान कर दें। ___ सुन्दरि ने भी माताजी से कहा कि मैं ऐसी स्थिति में आपको छोड़कर दीक्षा कैसे लू? लोग क्या कहेंगे ? माँ हॉस्पीटल में बीमार है और लड़की दीक्षा ले रही है। किन्तु माता तीजकुंवरि ने उसे भी यही समझाया कि बेटी ! भगवान ने कहा है-एक क्षण का भी प्रमाद मत करो। धर्म के कार्य में ढील करना अच्छा नहीं है । तुम मेरी चिन्ता छोड़ो और भरपूर उत्साह के साथ दीक्षा ग्रहण करो। माता तीज क्वर की प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर सुन्दरि पैदल चल कर दीक्षा स्थल पर पहंची । आज उसके मन में अपार आनन्द की अनुभूति हो रही थी। आज वह नए जीवन में प्रवेश करने जा रही थी। आत्म-संस्कार करने के लिए वह कटिबद्ध थी। दीक्षा शब्द की शाब्दिक व्युत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए किसी गीर्वाण गिरा के यशस्वी कवि ने लिखा है दीयते ज्ञानसद्भाव; क्षीयते पशुवासना। दान--क्षपण संयुक्ता दीक्षा तेनेह की ितता। अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान दिया जाता है और पशुवासना का क्षय होता है, ऐसी दान और क्षपण युक्त क्रिया दीक्षा है। सुन्दरि बनी : श्रमणी पुष्पवती सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में सुन्दरि की चिर प्रतीक्षित संघर्ष भरी दीक्षा सम्पन्न हुई। श्रमण परम्परा में जब कोई साध्वी जीवन में दीक्षित होती है तब उसको नयानाम दे दिया जाता है । सुन्दरि का नाम भी आज 'पुष्पवती' रखा गया। जो भाई-बहन दीक्षा के समय उपस्थित हुए थे, उन्हें माता तीजकुंवरि की ओर से नारियल की प्रभावना दी गई । सर्वत्र उल्लास था । पर यह कैसा विचित्र संयोग था कि उस दीक्षा में हॉस्पीटल में भर्ती होने के कारण न माता दीक्षा में उपस्थित हो सकी और न प्यारा भैया धन्नालाल भी माता के पास रहने से दीक्षा में आ सका । जब नव दीक्षिता को लेकर सद्गुरुणी जी श्री सोहनकुंवरिजी म. जुलूस के साथ उदयपुर शहर में प्रविष्ट हुई । गगनभेदी नारों से तथा मंगल गीतों से शब्दायमान करता हुआ जुलूस महासतीजी के स्थान पर पहुँचा । आधे मार्ग में गेरीलालजी खींवेसरा मिल गए। उन्हें महासतीजी की कही हुई बात स्मरण हो आई और उनके मुंह से ये शब्द निकल गए कि- “महासतीजी वस्तुतः शेरनी है । उन्होंने उदयपुर में ही सुन्दरि की ठाट-बाट से दीक्षा कर दी।" सुन्दरि कुमारी ने वैराग्य काल में ही भक्तामर, कल्याणमन्दिर, महावीराष्टक, चितामणि पार्श्वनाथ, अमित गतिद्वात्रिंशिका, रत्नाकर पंचविंशतिका आदि अनेक स्तोत्र तथा उत्तराध्ययन, दशवैका iiiiममा ..." एक बद, जो गंगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १८७ WWWlan
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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