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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ, inni विक्रम संवत १९८५ (सन् १९२८) में उनका पाणिग्रहण गोगुन्दा निवासी श्रीमान हीरालालजी सेठ की सुपुत्री तीजकुमारी के साथ सम्पन्न हुआ। तीजकुंवर बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कारों से सम्पन्न थीं। क्योंकि गोगुन्दा में आचार्य सम्राट अमरसिंहजी महाराज के सम्प्रदायस्थ सन्त-सतियों का आगमन होता रहता था। उनके निकट सम्पर्क में आकर आप धार्मिक अध्ययन करती रहती थीं। धार्मिक अध्ययन से आपके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना प्रबुद्ध हुई थी। पारिवारिकजनों के अत्यधिक आग्रह से आपका पाणिग्रहण जीवनसिंहजी के साथ सम्पन्न हुआ। तीजबाई ने नए घर में प्रवेश किया। विनय-विवेक के कारण कुछ ही दिन में उन्होंने वहाँ पर सभी के मन को जीत लिया। सुन्दरकुमारी भी माता तीजबाई के स्नेह को पाकर आह्लादित थी। माता के अकृत्रिम व्यवहार से वह बहुत सन्तुष्ट थी। उसे यह पता ही न चला कि यह मेरी दूसरी माँ है। जीवनसिंहजी के जीवन में पुनः उल्लास और प्रसन्नता के फूल खिल उठे। उनके दाम्पत्य जीवन में एक नई चेतना का संचार हुआ। कुछ समय के पश्चात् तीजकुंवर ने एक पुत्र को जन्म दिया । जिसका नाम बसन्तकुमार रखा गया। सोचा था यह बसन्त की तरह अच्छी तरह से फलेगा-फूलेगा और परिवार का आधार वृक्ष बनेगा। कई रंगीन कल्पनाएँ माता-पिता मन में संजोए हए थे। पर सब सपने सच नहीं होते। एक दिन यकायक बालक बसन्त रुग्ण हुआ और असमय में वह सदा के लिए संसार से विदा हो गया। उसके विदा होते ही कल्पनाओं का कमनीय महल भी ढह गया। अपने प्यारे भाई की मृत्यु को देख कर सुन्दरकुमारी किसी अज्ञात भय से सिहर उठी । मृत्यु के क्रूर अट्टहास से उसकी आत्मा कंपकंपा उठी । वह सोचने लगी कि यह मृत्यु क्या है ? वह मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए समुत्सुक थी। पर उसकी जिज्ञासा का कौन समाधान करता ? उसके मन में यह प्रश्न रह-रहकर कौंधता रहा । पिता भी पुत्र के निधन से चिन्तित थे। माता भी आँसू बहा रही थी। समय एक ऐसा अद्भुत मरहम है जो वियोग के घाव को भर देता है। ____एक दिन माता तीजकुंवर ने देव विमान का स्वप्न देखा। उस स्वप्न को देखकर उसका हृदय बांसों उछलने लगा । जब वह स्वप्न जीवनसिंहजी ने सुना तो वे भी आनन्द से झूम उठे। उन्होंने स्वप्न का फलादेश बताते हुए कहा-कि तुम एक पुण्यवान पुत्र की माँ बनेगी। जब बालक गर्भ में था। माता तीजकुंवर को इस प्रकार की भव्य भावना उबुद्ध होती थीं कि मैं गरीबों को दान दूं, उन्हें वस्त्र दूं, चतुर्विध संघ को आहारदान दूं, जीवों को अभयदान दूं। संसार में कोई भी व्यक्ति दुःखी न रहे और न अभावग्रस्त ही रहे। मैं जिनधर्म की प्रभावना करूं। स्थान-स्थान पर धार्मिक पाठशालाएँ स्थापित करूं । इस प्रकार उनकी जो भी भावनाएँ उत्पन्न हुई। दोहद जागृत हुए । उन सबकी पूर्ति जीवनसिंह जी ने की। धन्ना : सौभाग्यशाली धन्ना जीवनसिंह जी के मन में उल्लास था। वे सोच रहे थे कि अब जो सन्तान होगी वह मेरी गौरव गरिमा में चार चांद लगाएगी । अंगुलियों पर दिन गिन रहे थे। विक्रम संवत १६८८ कार्तिक वदी त्रयोदशी शनिवार दिनांक ८-११-१९३१ के दिन पुत्र का जन्म हुआ। भारतीय पर्व परम्परा में यह तिथि धन्या तिथि यानि धनतेरस के रूप में विश्रुत है। दीपावली की अगवानी हेतु इस दिन घर-घर में मंगल दीप जलाये जाते हैं । घर-घर में मिठाइयाँ वितरण की जाती है । सोने-चाँदी और जवाहारात की दुकानें विशेष रूप से सजाई जाती है । लोक-धारणा है कि इस दिन सोना-चाँदी आदि की वस्तुएँ क्रय करने से in १७२ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन www.jainelibratyal
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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