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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ गुप्त तपस्विनी महासती मदनकुंवरजी जिस प्रकार प्रकृष्ट प्रतिभा की धनी थीं उसी प्रकार उत्कृष्ट आचारनिष्ठा भी थीं । गुप्त तप उन्हें पसन्द था। प्रदर्शन से वे कोसों दूर भागती थीं । वे साध्वियों के आहारादि से निवृत्त होने पर जो अवशेष आहार बच जाता और पात्र धोने के बाद जो पानी बाहर डालने का होता उसी को पीकर संतोष कर लेतीं। कई बार नन्हीं सी गुड़ की डेली या शक्कर लेकर मुंह में डाल लेतीं । यदि कोई उनसे पूछा- क्या आज आपके उपवास है ! वे कहतीं - नहीं, मैंने तो मीठा खाया है । उनमें सेवा का गुण भी गजब का था । उन्हें हजारों जैन कथाएँ और लोक कथाएँ स्मरण थीं । समय-समय पर बालक और बालिकाओं को कथा के माध्यम से संसार की असारता का प्रतिपादन करतीं । कर्म के मर्म को समझाती । उनका मानना था कि बालकों को और सामान्य प्राणियों को कथा के माध्यम से ही उपदेश देना चाहिए जिससे वह उपदेश ग्रहण कर सके। उन्होंने मुझे बाल्यकाल में सैकड़ों कथाएँ सुनाई थीं । सन् १९४६ में तीन दिन के संथारे के साथ उदयपुर में उनका स्वर्गवास हुआ । (६) महासती सल्लेकुंवरजी - आपकी जन्मस्थली उदयपुर थी और आपका उदयपुर में ही मेहता परिवार में पाणिग्रहण हुआ । आपको महासतीजी के उपदेश को सुनकर वैराग्य भावना जागृत हुई और अपनी पुत्री सज्जनकुँवर के साथ आपने आर्हती दीक्षा ग्रहण की। आप सेवापरायण साध्वी थीं । (७) महासती सज्जनकुंवरजी - आपकी माता का नाम सल्लेकुंबर था और आपने माँ के साथ ही महासतीजी की सेवा में दीक्षा ग्रहण की थी । दीर्घ तपस्विनी तीज कुंवरजी (८) महासती तीजकुंवरजी - आपकी जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गाँव में थी । आपका पाणिग्रहण उसी गाँव में सेठ रोडमलजी भोगर के साथ सम्पन्न हुआ । गृहस्थाश्रम में आपका नाम गुलाब देवी था । आपके दो पुत्र थे जिनका नाम प्यारेलाल और भैरूलाल था तथा एक पुत्री थी जिसका नाम खमाकुंवर था। आपने महासतीजी के उपदेश से प्रभावित होकर दो पुत्र और एक पुत्री के साथ दीक्षा ग्रहण की। आपके पति का स्वर्गवास बहुत पहले हो चुका था । आपश्री ने श्रमणीधर्म स्वीकार करने के पश्चात् नौ बार मासखमण की तपस्याएँ कीं, सोलह वर्षों तक आपने एक घी के अतिरिक्त दूध, दही, तेल और मिष्ठान इन चार विगयों का त्याग किया। एक बार आपको प्रातःकाल सपना आया - आपने देखा कि एक घड़े के समान बृहत्काय मोती चमक रहा है। अतः जागृत होते ही आपने स्वप्न फल पर चिन्तन करते हुए विचार किया - अब मेरा एक दिन का ही आयु शेष है । अतः संथारा कर अपने जीवन को पवित्र बनाऊँ । आपने संथारा किया और एक दिन का संथारा कर स्वर्गस्थ हुईं । (६) परम विदुषी महासती श्री सोहनकुंवरजी- आपश्री की जन्मस्थली उदयपुर के सन्निकट तिरपाल गांव में थी और जन्म सं० १६४६ (सन् १८६२ ) में हुआ । आपके पितात्री का नाम रोडमलजी और माता का नाम गुलाब देवी था और आपका सांसारिक नाम खमाकुंवर था। नौ बरस की लघुवय में ही आपका वाग्दान डुलावतों के गुडे के तकतमलजी के साथ हो गया । किन्तु परम विदुषी महासती रायकुंवरजी और कविवर्य पं० मुनि नेमीचन्दजी महाराज के त्याग - वैराग्ययुक्त उपदेश को श्रवण कर आप में वैराग्य भावना जाग्रत हुई और जिनके साथ वाग्दान किया गया था उनका सम्बन्ध छोड़कर अपनी मातेश्वरी और अपने जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएं एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि | १५५ www.jain
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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