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________________ साध्वारत्नपुष्पवता अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रथम चरण में कुमारगिरि पर आगम परिषद हुई थी, जिसमें वाचनाचार्य आर्य बलिस्सह और गणाचार्य सुस्थित सुप्रतिबद्ध की परम्पराओं के पाँच सौ श्रमण उपस्थित हुए थे। वहाँ आर्या पोइणी भी तीनसौ श्रमणियों के साथ उपस्थित हई थीं। इससे स्पष्ट है कि आर्या पोइणी महान प्रतिभाशाली और आगम रहस्य को जानने वाली थीं। उनके कुल, वय, दीक्षा, शिक्षा, साधना सम्बन्धी अन्य परिचय प्राप्त नहीं है । हिमवन्त स्थविरावली से स्पष्ट है कि पोइणी का चतुर्विध संघ में गौरवपूर्ण स्थान था। पाँचवीं शताब्दी रूप और वैराग्य का संगम : आर्या सरस्वती वीर निर्वाण को पांचवीं शतो में द्वितीय कालकाचार्य को भगिनी सरस्वती थी। उनके पिता का नाम वैरसिंह और माता का नाम सूर सुन्दरी था। राजकुमार कालक का अपनी बहन सरस्वती पर अपार स्नेह था । गुणाकर मुनि के उपदेश से दोनों ने जैन दाक्षा ग्रहण की। एक बार आर्य कालक के दर्शन हेतु साध्वी सरस्वती उज्जयिनी पहँची। राजा गर्दभिल्ल ने उसके अनुपम लावण्य को देखा तो वह उस पर मुग्ध हो गया। उसने अपने राजपूरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का अपहरण करवाया । आर्य कालक को गर्दभिल्ल के घोर अनाचार का पता लगा। राजा को समझाने का प्रयास किया, किन्तु राजा न समझा। अतः आर्य कालक ने शकों की सहायता प्राप्त की एवं अपने भानजे भड़ौंच के राजा भानुमित्र को लेकर युद्ध किया, साध्वी सरस्वती को मुक्त करवाया और पुनः अपनी बहन सरस्वती को दीक्षा प्रदान की। साध्वी सरस्वती अनेक कष्टों का सामना करके भी अपने पथ से च्युत नहीं हई। आर्या सुनन्दा माता वीर निर्वाण की पांचवी शती में आर्य वज्र की माता सुनन्दा ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। उन्होंने किस श्रमणी के पास श्रमणधर्म स्वीकार किया उसके नाम का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। यह सत्य है कि उस युग में साध्वियों का विराट समुदाय होगा, क्योंकि बालक वज्र ने साध्वियों से ही सुनकर एकादश अंगों का अध्ययन किया था। - छठी शताब्दी अनुराग विराग बना : आर्या रुक्मिणी वीर निर्वाण की छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में साध्वी रुक्मिणी का वर्णन मिलता है । वह पाटलीपुत्र के कोट्याधीश श्रेष्ठी धन की एकलौती पुत्री थी। आर्य वज्र के अनुपम रूप को निहार कर मुग्ध हो गई। उसने अपने हृदय की बात पिता से कही। वह एक अरब मुद्राएँ तथा दिव्य वस्त्राभूषणों को लेकर वज्रस्वामी के पास पहुंचा। किन्तु रुक्मिणी ने वज्रस्वामी के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए उपदेश को सुनकर प्रव्रज्या ग्रहण की और रुक्मिणी तथा व्रजस्वामी के अपूर्व त्याग को देखकर सभी का सिर श्रद्धा से नत हो गया। वीर निर्वाण की पाँचवी-छठी शती में एक विदेशी महिला के द्वारा आर्हती दीक्षा ग्रहण करने का उल्लेख प्राप्त होता है। विशेषावश्यकभाष्य तथा निशीथचुणि में वर्णन है कि मुरुण्डराज की विधवा बहन प्रव्रज्या लेना चाहती थी। मुरुण्डराज ने साध्वियों की परीक्षा लेने हेतु एक आयोजन किया कि कौन साध्वी कैसी है ? एक भीमकाय हाथी पर महावत बैठ गया और चौराहे पर वह खड़ा हो गया। जब कोई भी साध्वी उधर से निकलती तब महावत हाथी को साध्वी की ओर बढ़ाते हुए साध्वी चेतावनी देता कि सभी वस्त्रों का परित्याग कर निर्वसना हो जाय, नहीं तो यह हाथी तुम्हें अपने पाँवों से कुचल डालेगा । अनेक साध्वियाँ, परिव्राजिकाएँ, भिक्षुणियाँ उधर निकलीं। भयभीत होकर उन्होंने जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएं एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि । १३६ www.jainel
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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