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________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ +F F F - : : -...-------------------------- सैकड़ों कृतियों के निर्माता महामहिम देवेन्द्र मुनि गिनी जा सकती या किसी भी दोष के होने की जी की बहिन जी हैं ।२३। योग्यता नहीं हो सकती ।२७। यस्य श्रिया विकसिताखिलजैनसृष्टौ मान्येऽपि रत्ननिचये यदि रत्नमन्यत्, संतिष्ठते मुनि विधु वनेऽधितारम् । चिन्वीत कोऽपि पुरुषो न हि लिन्दकोऽसौ । संश्रित्य कोतिनारा मुनिमण्डले यम्, रत्नेषु तद्वदिह मे चयनं विचिन्त्यम्, दीव्ये दनन्यप्तशो महतां दिनेशः ॥२४॥ स्यादेवमेव गणना विहितेयमस्याः ॥२८॥ जिसकी शोभा से विकसित सम्पूर्ण जन जात् मान्य रत्नसमुदाय में भी यदि कोई पुरुष किसी के आकाश में तारों में मुनिचन्द्र विराजमान है और रत्न को चुन लेता है तो यह तो नहीं माना जा मुनियों के मण्डल में दूसरो कोति को धारण कर सकता कि वह दूसरे रत्नों का निन्दक है या उनकी अद्वितीय तेजों का सूर्य दीप्त होता है ।२४।। अवगणना करता है । ठीक उसी प्रकार इन सतीजी प्रेम्णा सदैव गुरुतङ घमुपास्यमाना, का चयन विचार चाहिए। अतः यह चयन भी स्वी सतोगनियं निरतं महाभन । आक्षेप्तव्य नहीं हो सकता ।२८। संरक्ष्य सेधितुमना हृदयेन भव्यम् , रूपं वयो युवतिभावमवाप्य चासौ, संतिष्ठते सविनयं नियमानुकूलम् ॥२५॥ बाल्येऽपि बोधरहिते विरतौ निमग्ना । बहिनजी ये सती प्रेम से सदा गुरुजी के सङ्क हित्वा सुखं प्रकृतिजन्यविकारमूलम्, की उपासना करती हुई सेवा की भावना से अपने सत्यं सुखं मृगयितु रमते समाधौ ॥२६।। दीप्तिमन्त सतीगण की हृदय से रक्षा कर विनय और ये सतीजी यौवन, रूप और वय को प्राप्त से नियमानुसार यह भी विराजमान हैं ।२५। कर बोध-रहित बालकपन में वैराग्य में लीन ____ सम्प्रत्यहो चरितपावनमानसेयम्, होकर, प्रकृति से पैदा होने वाले विकार की जड़ श्रेष्ठासु पूतचरितासु सतीषु पुष्पा । सुख को छोड़कर सच्चे सुख ढूंढ़ने के लिए ध्यान धन्यापि शुद्धचरितर्मुनिभिः प्रशस्तैः, में लीन हैं । यह क्या कोई छोटी-मोटी बात है ? मान्येव दीव्यति जनः सुगुणैर्न रूपः ॥२६॥ अतः इनकी जितनी प्रशंसा हो, वह थोड़ी है ।२६। मिथ्याविवादनिकरं परिहाय नित्यम्, चरित से पूत मनवाली यह पुष्पवती सती अब शास्त्रावबोधविषये धृतचित्तवृत्तिः। | श्रेष्ठा पत चरित सतियों में शद्व चरित प्रशस्त मनियों साध्वी स्वयं स्वहृदयं विधिनानुकूलम्, से भी धन्य और मान्य के समान सम्मानित है, सद्योऽनुभावयति भावविभूतिवृद्धये ॥३०॥ क्योंकि मनुष्य अच्छे गुणों से प्रशंसा पाता है, रूप से शास्त्रागम के ज्ञान के विषय में ध्यानमग्न नहीं ।२६। हो ये सतीजी स्वयं अपने हृदय को विधि के मन्ये भवेयुरपरा अपि कीत्तिमत्यः, अनुसार भावविभूति की वृद्धि के लिए शीघ्र चिन्तन सत्यः परन्तु न हि ता मनसापि निन्द्याः। में लगी रहती हैं, इसलिए इन्होंने मिथ्या विवादों पूज्यासु तासु यदि मे गणिता सतीयम्, को छोड़कर ऐसा सदा के लिए किया । क्या यह दोषः पुनर्भवितुमर्हति नात्र कश्चित् ॥२७॥ सब यों ही हो जाता है ! ।३०। मानता हूँ कि अन्य भी कीर्तिमती सतियाँ हैं एतादृशो हि मुनयो बहवोऽपि सत्यः , किन्तु वे भी कभी मन से भी निन्द्य नहीं हो सकती, दृष्ट्यानया सुगतयो भविनः प्रणम्याः । किन्तु यदि उन पूज्य सतियों में यह भी सती गिनी वन्द्या भवेयुरथवा महिमाधिकाः स्युः, जाती है तो फिर इसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं स्तुत्याः सदा प्रणयिनो गुणिनो हि नान्ये ॥३१॥ ----------- हृदयोद्गारा ! १२३ Ciru www. iain
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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