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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ । में गुण देखती हैं और नीरस जीवन में भी सर- चाहता है। वैसे ही अनीति से उपार्जित सम्पत्ति। सता के संदर्शन करती है । आपका ज्ञान बहुत ही सम्पदा नहीं, विपदा लाती है। गहरा है । आपने ज्ञान को बुद्धि के स्तर पर आत्म महासतीजी के प्रवचन में चिन्तन है, विचारों में | सात किया है । फलस्वरूप उसमें अंधविश्वास नहीं गम्भीरता है, और वार्तालाप में सरलता, सरसता है । आप रूढ़ियों का, गलत परम्पराओं का जमकर और ताजगी है। विरोध करती हैं । धर्म के नाम पर पनपने वाले में उस ज्ञान ज्योति परम विदूपी साध्वी रत्न के वाह्य आडम्बरों की भी भर्त्सना करती हैं । आपने चरणों में श्रद्धा से नत हैं। उनका सारल्य दीप्त, अपनी "पुष्प-पराग" पुस्तक में उन मिथ्या धार- तेजोमय व्यक्तित्त्व हमारा सदा सर्वदा मार्ग दर्शन णाओं पर कठोर व्यंग्य किया हैं। करता रहे । आपके अभ्युदय एवं दीर्घायु की मंगल महासतीजी की जैन संस्कृति पर पूर्ण आस्था कामना करता हूँ। है । मैंने आस्था का कारण जानना चाहा तो महासतीजी ने बताया जैन संस्कृति-विश्व की एक विशिष्ट संस्कृति है जिस संस्कृति में मानव अपना चरमोत्कर्ष कर सकता है, जिस संस्कृति ने यह उद्घोष किया है कि आत्मा ही परमात्मा है ।"कर्मबद्ध आत्मा है और आराध्य के चरणों में कर्ममुक्त परमात्मा है । जब आत्मा अपने प्रबल पुरु -कन्हैयालाल सुराणा (नाथद्वारा) पाथे से कर्मों को नष्ट करता है तब वह परमात्मा बनता है । व्यक्ति का अपना पुरुषार्थ ही उसे महान् जिन व्यक्तियों के कार्य महान् होते हैं उनके बनाता है । दूसरी विगेषता यह है कि इस संस्कृति प्रति सहज श्रद्धा उद्बुद्ध होती है। जिन व्यक्तियों में अनेकान्तवाद की दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जिस का व्यक्तित्व ओजस्वी, तेजस्वी और वर्चस्वी दृष्टि से सांस्कृतिक समन्वय किया जा सकता है। होता है उनके व्यक्तित्व के प्रति भक्ति भावना विविधता में भी एकता के संदर्शन किये जा सकते पैदा होती है। जिनमें सद्गुणों का मधुर समन्वय हैं ! विभाजक में भी समन्वय भावना विकसित की होता है, वह व्यक्ति आराध्य बन जाता है। जा सकती हैं। इसीलिए वे जैन संस्कृति को विश्व मिति को विपत आराध्य को शब्दों के संकीर्ण घेरे में आबद्ध करना की सर्वश्रेष्ट संस्कृति मानती हैं। बहुत ही कठिन है। भाषा तो भावों का लंगड़ाता महासतीजी ने अपने प्रवचनों में इस बात पर हुआ अनुवाद है यह सत्य है और तथ्य भी है। बल दिया है कि आज देश में चारित्र का जो दुष्काल साथ में यह भी सत्य है कि भाषा के माध्यम से ही है उसका मूल कारण है-जीवनदृष्टि का अभाव। जीव- भाव व्यक्त किये जाते हैं। यह भाषा न हों तो भाव दृष्टि के अभाव के कारण ही मानव चारित्र को भूल व्यक्त नहीं किये जा सकते। कर धन को सर्वस्व मानने लगा है, जिससे मिलावट, महासती पुष्पवतीजी हमारे आराध्य हैं । मैं रिश्वतखोरी और तस्कर वृत्ति पनप रही है.मानवन्याय उस आराध्य देव को श्रद्धा के सुमन किन शब्दों और नीति को विस्मृत होकर धन के पीछेदीवाना बना में अर्पित करू। आपने हमें जिनवाणी की सुधा हुआ है । यह धन जो अन्याय और अनीति से उपा- पिलाई। जिस सुधा के पान से मेरे चिन्तन में एक जित है । वह शान्ति प्रदान नहीं करता । वह तो जागृति आई, मैं निर्भय होकर अपने लक्ष्य की ओर जीवन में उसी तरह अशान्ति पैदा करता है, जैसे अबाध गति से बढ़ने लगा हूँ ? आपके सम्पर्क कोई पिपासु केरोसिन पीकर प्यास शान्त करना में आकर मुझे अनन्त सत्य के दर्शन हुए। पहले १०६ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन www.jaine
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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