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________________ साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ) iiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiPHHHHHHHHIPPIRIFI किन्तु कुछ संस्णरण इतने ताजे रहते हैं तथा कुछ परिचय इतने प्रगाढ़ होते हैं कि वे सदा ही जीवन को माधुर्य से भरे रहते हैं और उन्हें जब-जब पलट कर देखा जाय तो वर्तमान के समान ही मन को प्रभावित करते हैं। अविस्मरणीय संस्मरण __विद्वत् शिरोमणि, चिन्तनशीला, मधुरवक्ता एवं अध्यात्म-ज्ञान-गरिमा के युक्त श्रमणीरत्न महासतीजी श्री पुष्पवतीजी म० से मेरा प्रगाढ़ परिचय ऐसा ही मधुर तथा अविस्मरणीय रहा है । लगभग चार दशक का समय व्यतीत हो जाने पर भी यह न धूमिल होता है और न कुछ भी विस्मृत ही हो पाता है। मुझे, खूब याद है, सन् १९४५ के लगभग मेरे पिताजी पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल जो कि जैनदर्शन के धुरंधर विद्वान हैं, 'श्री जैन गुरुकुल व्यावर' में प्रधानाध्यापक के पद पर आसीन थे और हम सब गुरुकुल में ही रहा करते थे। उन्हीं दिनों मेरा प्रथम परिचय महासतीजी से हुआ था। वे पिताजी से अध्ययन करने हेतु प्रायः गुरुकुल में निवास करती थीं और हम भाई-बहन आदि सभी दिन भर में अनेक बार आपके दर्शनार्थ दौड़ जाया करते थे तथा रात्रि को कहानियाँ सुने बिना पीछा छोड़ते ही नहीं थे। वह सहज परिचय और प्रगाढ़ बना, जब 'जैन गुरुकुल' समाप्त हुआ तथा पिताजी ब्यावर के ही 'बिचरली मुहल्ले' में निवास करने लगे। महासतीजी भी अध्ययनार्थ ब्यावर में विराज रही थी तथा चातुर्मास भी वहीं था। उन्हीं दिनों में अध्ययन कर रही थी तथा ब्यावर में ही रहना हुआ था। प्रतिदिन दो-तीन बार मैं समय मिलते ही आपके दर्शनार्थ जाया करती थी उपाश्रय में । वह इसी कारण कि आपका स्पष्ट एवं निष्कपट एवं आत्मीयता से परिपूर्ण अति सौम्य व्यक्तित्व मुझे अत्यन्त प्रिय लगता था । आपके चेहरे पर सतत बनी रहने वाली आकर्षक मुस्कुराहट तथा व्यवहार की स्निग्धता मुझे पुन: पुनः आपके समीप खींचकर ले जाया करती थी। मैं घंटों आपके सामीप्य में रहती थी तथा जैन-दर्शन, संयम-साधना आदि मन को परिष्कृत करने वाले विषयों पर आपसे वार्तालाप किया करती थी। इसी प्रकार अपने जीवन के व्यक्तिगत विषयों का समाधान पाती थी, साथ ही म. श्री के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के विषय में भी जानकारी प्राप्त करती थी। प्रमूदित भाव से मित्रों के समान निःसंकोच वार्तालाप हमारा होता था। यद्यपि उन दिनों मेरा जीवन उलझनों और परेशानियों से भरा था अतः मन बहुत खिन्नता और निराशा का अनुभव करता था। पर महासतीजी ने सतत् प्रेरणा देते हुए मेरे चित्त में कर्तव्य-बोध, जगाया तथा जीवन का सही उद्देश्य बताते हुए इसके प्रति आस्था पैदाकर के निराश की भावनाओं को बड़ी सीमा तक समाप्त किया। इस दृष्टि से मैं आज तक उनके प्रति आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे मन की उथल-पुथल भूलकर इसे व्यस्त रखने के लिये ज्ञानार्जन करने के साथ ही साथ कुछ न कुछ लिखते रहने की भी प्रेरणा दी । ब्यावर निवास के पश्चात् अधिक समय आपके साथ रहने का अवसर भले ही नहीं मिला किन्तु समय-समय पर यत्र-तत्र उनके दर्शन किये तथा पूर्व-सम्पर्क का माधुर्य बना रहा। माता का मातृत्व वरदान साबित हुआ। आपकी माताजी महासतीजी श्री प्रभावतीजी थी। उनके सदृश माता का प्राप्त होना इस पृथ्वी पर असम्भव तो नहीं, किन्तु अत्यन्त दुर्लभ अवश्य है । विरली माताएँ अपनी सन्तान को दूरदर्शिता एवं विचक्षणता के द्वारा उस अक्षयसूख की प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ा सकती हैं जो सदा-सर्वदा शाश्वत रहता है। महारानी मदालसा ने जिस प्रकार अपने सातों पुत्रों को सोते-जागते, हंसते-खेलते तथा अन्य समस्त क्रियाओं के साथ-साथ वैराग्य-रस के गीत और कहानियाँ सूना-सूनाकर उनमें उत्तमोत्तम संस्कार भरे और राजकुमार होने पर भी उन्हें महान् त्यागी पुरुष बना दिया। ठीक इसी प्रकार श्री प्रभावती जी ने अपनी म म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म्म ८२ | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन www.jaineliprat
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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