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________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ HINDI ............. -దండంబడడం విధించాలంటుండటం तत् त्त्वमसि, श्री पुष्पवती -पं. जनार्दराय नागर .... ..... ल . ति उदयपुर विद्यापीठ) సందడదడలాడించుకుంటున్నాడు అందించడంతంగా దండరాం .....non.. hit A . .... AAAAAkashasanik . ... ... म भी नहीं है। परम विदुषी साध्वी-रत्न श्री पुष्पवती ! अभिनन्दन ! (१) चार्वाक लोकायत ने मानव जीव को कहा-आत्म-परमात्मा पुनर्जन्म, मुक्ति-मोक्ष धर्म सदा चरण आदि व्यर्थ का प्रलाप है । जीव का शरीर ही जीव है तथा वह परमाणुओं में संघात से (गोबर के कीड़ों की भाँति) उत्पन्न होता रहता है । अतः ऋणकर तथा घृत पीते हुए भोगो ! यह देह भस्मीभूत होगा देह चिरन्तन नहीं है—अजर और अमर है नहीं । मृत्यु के पश्चात् के विषय में केवल संभ्रान्त कथन मात्र है ! अतः शाश्वत चैतन्य-आत्मा-परमात्मा, परमेश्वर जैसा कहा भले ही जाय, परन्तु अनुभव में ऐसा कुछ (२) लोकायतों ने स्वयं को अन्त में जर्जरित होकर नष्ट होने वाला देह ही माना है तथा इस जगत को रहस्यमय परमाणुओं का गोबर मानकर सभी जीवों को कीड़े माना है। लोकायत इन्द्रियज सन्निकर्ष से अबाध और निश्चिन्त भोग मे ही अतः भौतिक (विज्ञानवादी) संस्कृति मूलतः चार्वाक-संस्कृति ही है। चार्वाक-म मृत्यु को ही अन्तिम तथा आत्यन्तिक मानकर चलता है । सच तो यह प्रतीत होता है कि मानव के अन्तः . करण में मृत्यु और मृत्युञ्जय संस्कृति की चेतनाओं का संक्रामक तथा सनातन द्वन्द्व है और चलता ही रहता है। (३)-किन्तु जैन ने उदित होकर मानवों से कहा, देह नहीं हो तुम पुष्पवती ! तुम अजर-अमर ifi निष्कलंक निष्पाप चैतन्य हो । तुम वही हो ! यह देह तो प्रारब्धवशात् ही तुम धारण कर प्राबन्ध-योग करती रहती हो ! अतः इस जगत में बुद्धिशाली जीव को "आत्मा-शाश्वत अनादि मुक्त और आनन्दमय चैतन्य का इंगित जैन-मानव ने किया है और यहीं से मानव-प्रबुद्ध ने आत्मा-परमात्मा की शोध आरंभ की है ! इसलिये जैन-दर्शन मानव की दार्शनिक ऊहापोह तथा चिन्तन-मनन एवं साधना के लिये जीवन-दर्शन का शिलान्यास ही है। सच यही लगता है कि मानव-जीव इन्द्रिय-सन्निकर्ष द्वारा भी, जगत के सतत् क्षणिक भोग करता हुआ भी अपने चिद्-धन में अपने ही परम चैतन्य का ध्यान करता ही रहता हैं ! मानव-जीव का स्वभाव है जगत के भोग द्वारा अपने ही आत्म चैतन्य का ध्यान करते रहना । इसीलिये मानव बुद्धि में “दर्शन'' की प्रज्ञा का स्वयंभू उदय होता है । जगत का हमारा ध्यान तो जगत के पंचभूतों और उनको तन्मात्राओं द्वारा भोगने का ही है । शस्त्र, शास्त्र विद्या आदि सभी बल जगत को प्राप्त करने के लिये ही हैं । विद्या द्वारा जगत प्राप्त किया जाता है, और कला द्वारा भोगा जाता है । किन्तु भोग मात्र क्षणिक है, जगत के रूप की अभिव्यक्ति सनातन तो है, अनादि तो है किन्तु क्षणिक है तथा जगत में नाम स्मृति में कुछ काल ध्वनित होकर स दैव के लिये बिला जाता है । जगत की अन्तिम और आत्यैतिक अनुभूति तब क्या है 'मानव-बुद्धि का चरम-परम विकास होकर जब चिन्तन का अन्तिम विलास उद्भव होगा, तो वह यही होगाः ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या ! परम सत्य आत्मा है, चैतन्य है और म | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन HPterwasna www.jainelibre TIM +
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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