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________________ प्रथम गुण है—प्रकृति-भद्रता अर्थात् प्रकृति से- स्वभाव से भद्र होना- सरल होना । इस गुण को धारण करने वाला मानव स्वत: अच्छा बन जाता है । जो लोग प्रकृति से सरल होते हैं, वे दूसरों को सहज रूप में प्रिय लगते हैं। धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, सामायिक-संवर आदि का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है जिनके स्वभाव में कृत्रिमता न हो, किसी प्रकार का दुराव-छिपाव न हो, भीतर और बाहर कोई भेद न हो, वे धार्मिक क्रिया-काण्ड न करते हुए भी धार्मिक होते हैं। उनका अन्त:करण पवित्र होता है। बड़ी विचित्र बात है, जो वक्र होते हैं, स्वयं सरल नहीं होते, वे भी सरलता को पसंद करते हैं। दूसरों की वक्रता उन्हें अच्छी नहीं लगती । वस्तुत: भद्रता सभी को भद्र, सौम्य, प्रिय लगती हमने “अन्तर्ध्वनि” नामक पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है कि एक बार हम उदयपुर के परिसर की पहाड़ियों में प्रात: परिभ्रमण के लिये गये। किसी पहाड़ी की उपत्यका में स्थित होकर चारों ओर निहारने लगे, कहीं भारी-भारी पाषाण-खण्ड लुढ़के पड़े हैं, कहीं बड़ी-बड़ी चट्टानें अपने विशाल कलेवर को फैलाये सहज रूप में लेटी हैं, कहीं सूखा, कहीं हरा घास अर्धजरती (प्रौढ़ा) स्त्री के बालों के समान दृष्टिगोचर हो रहा है। सारा वातावरण अस्त-व्यस्त है, कहीं कोई सजावट नहीं है। फिर भी वह स्थल अत्यन्त मनोरम, रमणीय एवं आकर्षक प्रतीत हो रहा है। हमने उस पार्वतीय भू-स्थल से ही पूछ लिया कि तुम में किस बात का आकर्षण है । साज-सज्जा का तो कहीं नाम-निशान तक नहीं, फिर भी तुम अन्तःकरण को आकृष्ट करते हो, क्या कारण है? तभी मूक प्रत्युत्तर मिला कि हम अकृत्रिम हैं। हमारे पास कृत्रिम साज-सज्जा नहीं है, इसलिए हम आकर्षक हैं । यहां जो कुछ है, सहज है, बनावटी नहीं है, इसीलिये सुन्दर, मनोहर और मनमोहक है। हमने एक सबक सीखा कि सहजता-प्रकृति की अकृत्रिमता प्रियता उत्पन्न करती है। जो मनुष्य शुष्क तर्क के स्पर्श से अछूता होता है, स्वत: सुन्दर होता है । इसी कारण प्रकृति की भद्रता मानवता की प्राप्ति के लिये आवश्यक प्रथम सद्गुण है।। दूसरा गुण है—प्रकृति-विनीतता। यह भी अपने आप में अनूठा है। विनीतता-नम्रता व्यक्ति को सर्वप्रिय बना देती है। इसमें अपने पास से कुछ नहीं लगता इसके द्वारा बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। विनयशील की सर्वत्र महत्ता होती है। सभी द्वारा उसे आदर प्राप्त होता है। जहां सहज रूप से गर्व का परिहार हो जाता है वहां कर्कशता स्थान नहीं पाती। जैनागमों ने तो “विणओ सासणे मूलं” कहकर इसके गौरव को शतगुणित कर दिया है। स्वस्थ माणुस्सं खु सुदुल्लहं ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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