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________________ को छोड़कर जब वह जाने लगता है तब पता चलता है कि कौन बाप था और कौन बेटा, कौन पति था और कौन पत्नी । यहां सारे सम्बन्धों का अन्त हो जाता है । न साथ में बाप जाता है न मां जाती है । न पुत्र जाता है न पत्नी । न घर जाता है न प्रोपर्टी । उसके साथ जाते हैं जीवन में उसके द्वारा किए गए पुण्य और पाप । पाप और पुण्य ही जीव के सच्चे साथी है। जिस समय मृत व्यक्ति की अर्थी घर से निकलती है, उस समय सबसे अधिक करूण दृश्य उपस्थित होता है। उस समय उसके बच्चे, उसकी पत्नी, बहन और मां का करूण क्रंदन हृदय को चीर डालता है। बेटा ! बेटा ! कह कर मां रोती है। पिताजी ! पिताजी ! कह कर बच्चे चिल्लाते हैं और प्रियतम ! प्रियतम ! ! कह कर पत्नी आंसू बहाती है, पर वह मां का बेटा, बच्चों का पिता, और पत्नी का प्रियतम तो जंगल की लकड़ियों के साथ सो गया, वह उन लकड़ियों के साथ जलकर राख हो जाएगा। इस तरह जिस पर व्यक्ति अत्यधिक आसक्ति रखता है वह शरीर जलकर राख हो जाता है। मनुष्य जन्म लेता है, युवा बनता है और वृद्ध होकर मर जाता है। सब अनित्य और अस्थिर है। यह परिवर्तन यह अस्थिरता व्यक्ति को साफ दिखाई देती है, पर वह देखते हुए भी नही देखता । जो वास्तव में देखता है गहराई में उतर कर उसे निश्चित रूप से इन चीजों से विरक्ति हो जाएगी। ऐसे चिंतनशील व्यक्ति जो गहराई में उतर कर सोचते हैं, बिरले ही होते हैं। एक करकन्डु नाम के राजा हुए हैं । इस नाम के कई राजा हुए है । एक प्रत्येक बुद्ध करकुंड हुए हैं। किसी वस्तु को देखकर जिन्हें बोध (वैराग्य) हो जाता है, उन्हें प्रत्येक बुद्ध कहा जाता है। करकुंड का युवावस्था में ही राज्याभिषेक हो गया था ! वे एक विवेकशील, चिंतक और धार्मिक राजा थे । नगर के ऊपरी भाग में उनका महल बना हुआ था। उस महल की खिड़कियों से पूरा नगर दिखाई देता था । एक झरोखा, जहां से नगर का मुख्य मार्ग दिखाई पड़ता था। राजा करकुंड शाम को उस झरोखे में बैठते थे और उस मुख्य मार्ग से आने जाने वालों का निरीक्षण करते थे। यह उनका प्रतिदिन का क्रम था। कई दिनों से वे एक अलमस्त सांड को देख रहे थे। सब उस सांड की ताकत से डरते थे । उसे कोई हाथ नहीं लगा सकता था । जो उसके सामने जाता था, उसे अपने सींगों से मार कर दूर भगा देता था। कोई दूसरा बैल उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता था। पूरे नगर में उसका आंतक छाया रहता था। राजा करकन्डु को वह सांड प्रतिदिन दिखाई देता था। वे उसे देखते रहते उसके लम्बे-चौड़े मांसल और बलिष्ठ शरीर को उसकी अनित्य भावना ३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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