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________________ सर्वथा नष्ट हो जाते हैं और वे निरञ्जन, निराकार, सिद्ध-बुद्ध बन जाते हैं। उनके बाद वे फिर जन्म-मरण नहीं करते । जैनधर्म गुण का पुजारी होने से इनमें नाम भेद होने से विनय में कोई भेद नहीं करता । आचार्य हेमचन्द्र ने इसी प्रकार की स्तुति की है— “भववीजांकुरजनना रागाद्या: क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ यत्र यत्र समये योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया। वीतदोषकलुषः स चेद् एक एव भगवन्नमोऽस्तु ते ॥” अर्थात्-जिनके संसाररूपी बीज (कर्मरूपी) के अंकुर को पैदा करने वाले रागद्वेषादि नष्ट हो जाते हैं, उनका नाम चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो या जिन हो, उन्हें मेरा नमस्कार है। जिस-जिस समय में जो-जो महापुरुष जिस-जिस नाम के हुए हैं, अगर वे राग-द्वेषादि दोषों से रहित हैं तो एक ही है, उस भगवान् को मेरा नमस्कार हो। इस प्रकार किसी भी नाम के तीर्थंकर हों, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखना, उनकी आशातना न करना, उनका बहुमान करना, उनके गुणगान करना तथा उनकी भक्ति करना उनका विनय है। तीर्थंकर सर्वोच्च संसारी हैं। संसार में वे सर्वोच्च शिखर पर हैं। संसार में उनसे बढ़ कर पुण्यात्मा कोई नहीं है । वे साकार परमात्मा हैं। उनके शरीर होने से रूप, रस, गन्ध और स्पर्श भी होते हैं । शरीर होने से शरीर की सभी क्रियाएँ वे करते हैं। फिर भी शरीर के प्रति या संसार की किसी भी वस्तु के प्रति उनकी आसक्ति या मूर्छा नहीं होती। और न किसी के प्रति वे घृणा, द्वेष या वैर ही करते हैं । वे वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। कोई यह कह सकता है कि तीर्थंकर इस समय इस क्षेत्र में विद्यमान नहीं हैं, तो फिर उनका विनय कैसे किया जायेगा? हम यह पहले कह चुके हैं कि गुणी-पुरुष की चाहे मौजूदगी हो चाहे न हो, विनय तो उनमें रहे हुए गुणों के प्रति है । इसलिए सर्वोच्चगुणी तीर्थंकरों की अविद्यमानता में भी उनके गुणों से प्रेरणा लेने के लिए तथा संकट, भय, प्रलोभन आदि के समय भी हम उन गुणों पर स्थिर रह सकें तथा उन गुणों को अपनाने की प्रेरणा या प्रोत्साहन भी दूसरे लोगों को मिल सके, इस दृष्टि से उनके प्रति विनय उपर्युक्त चारों प्रकार से किया जाता है। तीर्थंकर जब विद्यमान होते हैं, तब भी उनके दर्शन करके उनके प्रति विनय करने वाले व्यक्ति उनके गुणों का या आत्मा का तो साक्षात् दर्शन या विनय नहीं कर सकते; क्योंकि गुण और आत्मा दोनों ही अमूर्त हैं, अरूपी हैं। अत: वे उनके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शयुक्त इस भौतिक देह का ही दर्शन या विनय करते हैं। तीर्थंकर भगवान् की आत्मा जिस शरीर को धारण किए हुए विनय के प्रकार १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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