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________________ विनय के प्रकार आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जैन धर्म गुणों का पूजक है । गुणों की पूजा उसका मुद्रालेख है । इस दृष्टि से जो गुण मानव-जीवन का निर्माण करने में, आत्मा की शुद्धि करने में और जीवन को उन्नत करने में सहायक हों, उनके प्रति झुकाव और श्रद्धा तथा उनका बहुमान और गुणगान करना, उनकी आशातना न करना और इस रूप में विनय करना आवश्यक हो जाता है। साथ ही गुणों से समृद्ध हों, उनका भी विनय करना आवश्यक है । क्योंकि गुणी का विनय करना भी उस गुण का ही विनय है । गुणी का विनय करने से उन गुणों को प्रोत्साहन मिलता है । जनता उन गुणों को जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित होती है। इसी तरह प्रकारान्तर से गुणी की सेवा, पूजा, भक्ति, उनके धर्म-प्रसार के कार्यों में सहयोगदान आदि सब बातें गुणपूजा में ही समाविष्ट होती हैं । इसीलिए उत्तररामचरित में सीता के प्रति अरुन्धती ने ये उद्गार निकाले गुणा: पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः । अर्थात् — गुणियों में गुण ही पूजा के कारण है, न तो लिङ्ग (वेष) ही पूजा का कारण है और न उम्र । जैसे धर्म धर्मी में रहता है, उसी प्रकार गुण गुणी में रहते हैं । तब फिर हम गुणों का तो विनय करें, लेकिन गुणों के धाम (निवास-स्थान) का विनय न करें; यह कहां तक उचित है ? कई लोग यह कहा करते हैं कि गुणोपुरुषों में कई दोष भी होते हैं । अत: जब हम गुणी का विनय करने जाते हैं तो उनके गुणों के समर्थन के साथ-साथ दोषों का भी समर्थन हो जाता है, किन्तु यह तर्क असंगत है । किसी नगर के बाग-बगीचे, सुन्दर इमारतें, विद्यालय तथा विनय के प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only १५ www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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