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________________ ४४६ पार्थ समान, महाप्रण विजयी गुरुदेव आत्मरूप निर्झर के प्रवाहक, आतमराम गुरु । याद आपकी कैसे भुलादें, हे अभिराम गुरु ॥ ये थे तुम हमें तारने, भूले जग का पथ सँवारने । सत्रह साधु ले आगे बढ़ गये, रुके न कदम गुरु ॥ प्राणों की परवाह नहीं की, गोचरी की भी चाह नहीं की । पथ के मध्य में लिया नहीं, क्षणभर विश्राम गुरु ॥ Jain Education International सूरज बन कर चमक उठे तुम, क्रान्ति- अग्नि बन दमक उठे तुम । जल, थल, पवन में गूँज उठा, तेरा पैगाम गुरु ॥ अनथक योद्धा हे रण विजयी ! पार्थ समान महा प्रण विजयी ! गुजरांवाला इस यात्रा का, अन्तिम धाम गुरु ॥ नव निर्माण के नायक गुरुवर शास्त्र ज्ञान- उन्नायक गुरुवर ! । कालजयी हो राम नाम सम, कोटि प्रणाम गुरु || प्रो. राम जैन श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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