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________________ लक्ष्मी: स्थिरा भवति सद्मनि शान्तिरेति । तेषां वशीभवति नाथ ! शिवाङ्गनापि, ये संस्तवं तव विभो ! रचयन्ति भव्या: ॥४३ ॥ हे विभो ! जो भी व्यक्ति आपकी स्तुति करता है, उसके सभी प्रकार के कष्ट समूल नष्ट हो जाते हैं और वह सुख प्राप्त करता है, उसके घर में लक्ष्मी सदा-सदा के लिए स्थिर हो जाती है और तो क्या प्रभु? उसे मोक्षरुपी लक्ष्मी भी वशीभूत हो जाती है। भव्या येऽमरवन्द्यं, वन्दन्ते त्वां मुनीश ! विशदधियः । ते कर्मक्षयचतुरा अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥४४ ॥ हे मुनिश ! जो विशद् बुद्धिवाले भव्य लोग देवताओं के वंदनीय आपको वंदन करते हैं, वे कर्म क्षय करने में निपुण शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रशस्ति: कल्याणमन्दिरमहास्तवतुर्यपाद पूर्व्याङ्कितं स्तवनमीहितदानदक्षम् । वीरात् (२४६२) कराङ्गयुगनेत्रमिते गतेऽब्दे, श्री विक्रमाद् (१९९२) द्विनिधिनंदसितांशुसंख्ये ॥१॥ वीर संवत् २४६२, विक्रमसंवत् १९९२ में महास्तवन कल्याण मंदिर की चतुर्थ पादपूर्ति की इच्छित मनोरथ को परिपूर्ण करने वाले स्तवन की रचना की। अमरविजयपादाम्भोज,गायितेन, चतुरविजयनाम्नो शिष्यलेशेन दृब्धम् । शुभवति रविवारे पोषकृष्णे दशम्यां, जयतु सुचिरमेतद् वाच्यमानं सुधीभि: ॥२॥ प. पू. अमर विजय के चरण-कमलों के भ्रमर सदृश “चतुर” विजय नामक शिष्य के द्वारा पोष वदी १० मी रविवार के शुभ दिन इस स्तवन की रचना की जो स्तवन विद्वानों के द्वारा पढ़ा जाता हुआ लंबे कालतक विद्यमान रहेगा। एतत् कृतं विजयवल्लभसूरिवर्य, श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ ४३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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