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________________ ग्रीष्मेध्वगान निबिडतापविलीनगात्रान्, प्रीणाति पद्मसरस: सरसोऽनिलोऽपि ॥७॥ हे सूरीश्वर ! आपका स्तवन तो दूर, मात्र स्मरण भी प्राणियों को अतुल प्रमोद प्रकट करता है। जैसे ग्रीष्मऋतु में भयंकर ताप से पसीने से लथ-पथ बने हुए शरीर वाले पथिकों को पद्मसरोवर का सरस पवन प्रशान्त करता है। श्रुत्वाऽभिधानमपि ते प्रतिवादिनोऽरं, नश्यन्ति कातरतरा इह काकनाशम् । सर्पा:स्थितिं विदधते किमु पार्श्वभूमि, मभ्यागते वनशिखण्डिनि चन्दनस्य ॥८॥ आपके नाम मात्र को सुनकर प्रतिपक्षी, कायर मनुष्यों की तरह भाग जाते हैं और कौओं की तरह उड़ जाते हैं ।चंदन वृक्ष पर रहे हुए सर्प मोर के आने पर क्या चंदन वृक्ष पर रह सकते हैं? अर्थात् नहीं। गोभि: प्रबोधयति विश्वमशेषमेत् सूरे ! त्वयि स्फुरिततेजसि लोकबन्धो ! । मुच्यन्त एव भविनो घनकर्मबन्धै श्चौरैरिवाशु पशव: प्रपलायमानैः ॥९॥ हे लोकबन्धु ! स्फुरायमान तेज आपमें विद्यमान है ।वह तेज संपूर्ण विश्व को किरणों से प्रबोधित करता है ।आपके प्रभाव से भविजन के गाढ़ कर्मबन्ध वैसे ही छूट जाते हैं जैसेकि चोर सूर्योदय के होने पर पशुओं को छोड़कर शीघ्र भाग जाते हैं। विश्वं प्रमोदयति शिष्यपरम्परा या, सर्वस्तवैव मुनिपुङ्गव ! स प्रभाव: । मूर्तिर्जडाऽपि लभते जगति प्रतिष्ठा, मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ आपकी शिष्य परंपरा समस्त विश्व को प्रमोदित करती है, हे मुनिपुङ्गव ! यह सब आपका ही प्रभाव है, जैसे जड़ मूर्ति भी उसमें देवत्व के रहने से संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त करती है। ख्यातो जगत्त्रयविजेतृतया बलाढ्यो, जिग्ये स कामसुभटो भवता विनास्त्रैः । श्री विजयानंद प्रशस्ति ४२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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