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________________ आकांक्षाएं अतृप्त ही रहीं। पहुंचना था जहाँ वह क्षितिज रेखा ही रही। फिर भी पुरुषोत्तम ने हिम्मत नहीं हारी। लड़खड़ाने पर भी प्रगति जारी रखी। प्रखर प्रतिभाशाली की खुशियाली, आगम अध्यवसायी होने से दिन दूनी रात चौगुणी पूंजीभूत होने लगी । रवि रश्मियां झिलमिलाने लगीं । निरंतर अध्ययन से उन्हें खरे खोटे की परख होने लगी। जिज्ञासु को छिछोरी वृत्ति नहीं जंची । अतएव उन्होंने ज्ञानोपार्जन की कोशिश जारी रक्खी । यही कारण था कि प्रवर्तमान पिस्तालिस आगमों की मूल ही नहीं बल्कि उसकी भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, टीका प्रभृति की आवृति हृदयंगम की और भगवती सूत्र की भी जानकारी हासिल की। जब उन्होंने यह पढ़ा : "तहिं चेइअई वंदई तत्र चैत्यानि वंदते" प्रभंजन हिल्लोरित हुआ । दुर्विनीत विचारों में क्रंदन हुआ। शंका-कुशंकाओं से विमुक्त होते ही प्रभाकर की प्रभा से झिलमिल हुआ। और जैसे जैसे सरिसर सर कर काल क्रम से निर्मल बनकर प्राणवल्लभा सी सुखकर हुई- आत्माराम को स्वानुभूति हुई। और क्यों न होती आगमों के आदर्श की वह ज्योति जो था। और जब श्री आत्मारामजी की प्रतिभा सम्पन्न पूज्य रत्नचंदजी से आगरा में मुलाकात हुई, ज्ञान-गंगा नि:सृत हुई। राज प्रश्नीय और जीवाभिगम आदि आगम ग्रंथों में सिद्धायतनों, जिन शाश्वत भवनों, देवाधिदेवों की दिव्य प्रतिमाओं ने अंतर अभिराम रची दिव्य दृष्टि की सृष्टि की। गुरूवर जब तक पंजाब में विचरे तब तक उन्होंने मनिराजों को लोगों के परिगण को, सत्य समझा समझाकर वस्तु स्थिति का ज्ञान करवाकर दिव्यता का दिग्दर्शन करवाकर जीवन धन्य बनाने का प्रयास करते रहे । मंगल महोत्सव जगह जगह मनाते रहे। श्री आत्मारामजी नगर नगर घूमे, गांव गांव विचारे । आपने अपनी अप्रतिम प्रतिभा से, अकाट्य शास्त्रोक्तियों से एवम् वाक पटुता से ऐसा माहौल रचा कि शत्रु शत्रु न रहा मित्र हो गया। मतलब यह कि गुरुवर हुक्म के इक्के बन गये। प्राण प्राण के प्राणाधार बन गये । जहाँ जहाँ वे गये, वशीकरण करते गये, प्यार परसते गये । गणधर रचित द्वादशांगी के दुंदभी निनाद से जय जयकार करते गये। स्थानकवासी पंथ के गगन चुंबित कगारों को जगह जगह से बहते देख गुरुवर की सचोट सटीक प्रशस्तता देख ढूंढक पंथ के दिग्गज मुनिराजों को हृदय परिवर्तन देख श्रावक वर्ग को आत्माराम ३८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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