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________________ मूलार्थ को ही मानते है, उसकी नियुक्ति - भाष्य - चूर्णी- टीकादि, पंचांगी को नहीं, यह भी एक मिथ्या प्रपंच है, कोरा कथन है, केवल आत्म वंचना है, व्यवहार में तो वे उन्हें भी नहीं मानते - जैसे (१) भगवती सूत्र को मानते है । उस मूल सूत्र में द्वादशांगी का नामोल्लेख करके अन्य सब अंगके लिए नंदी सूत्र की ओर संकेत करते हुए सूत्रार्थ करने के तीन प्रकार बतलाये हैं यथा- प्रथम सूत्र देना; दूसरा निर्युक्ति मिश्रित पाठ देना, तीसरा संपूर्ण अर्थ देना। अब जब निर्युक्ति को मानते ही नहीं, तो दूसरा-तीसरा प्रकार छूट जाता है जो मूल सूत्र का ही अनादर हुआ। जब मूल में नियुक्ति का निर्देश किया गया है तब भी उसे नहीं मानना यह आत्म वंचना - भ्रामक जाल ही हुआ । पंचम श्रुतवली श्री भद्रबालु स्वामी ने आगमों की व्याख्या रूप नियुक्ति की रचनायें की है। आ. श्री गंध हस्ती सूरीश्वरजी ने 'गंधहस्ती महाभाष्य' नामक भाष्य लिखा; उसीको आधारभूत बनाकर आ. श्री शीलांगाचार्य ने आगमों पर टीकायें लिखी है; तदनन्तर आ. अभयदेव सूरिजी ने उन्हीं के प्रमाणित टीकायें लिखी हैं- इन आगमोदधि के सर्वेसर्वा पारगामी, विशिष्ट ज्ञानी पूर्वाचार्यों के सद्ग्रंथों को अमान्य और अप्रभाविक इसीलिए किया कि अगर इन्हें मान्यता दें तो ढूंढक पंथ का समूलोन्मूलन हो जाता है। और इनको तो आगम निहित मूर्तिपूजा को आगम बाह्य प्रमाणित करनी है। इसलिए खुद के स्वीकृत आगम में आये 'अरिहंत चेइयाई ' आदि पाठों का ‘चैत्य' शब्द का अर्थ कहीं ज्ञान और कहीं साधु किया है । इन्हें तो मूलार्थ को भी तोड मरोड कर मनगडंत अर्थ की प्रस्थापना करनी है और अज्ञ जनता में प्रतिष्ठित होना है । 'जिन पडिमा' के 'जिन' शब्द का कामदेव अर्थ दे दिया, तो शाश्वत प्रतिमाओं की देवों द्वारा की गई पूजा को 'देव करणी' कहकर टाल दिया और द्रौपदी द्वारा की गई पूजा के 'मिथ्यादृष्टि' बता दिया । समवायांग सूत्र का पाठ “तेणं कालेणं, तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जावगणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिन्ना” इसका परमार्थ पूर्वाचार्यों की नियुक्ति - भाष्य और टीका के बिना ज्ञात नहीं हो सकता। क्योंकि 'कप्पस समोसरणं' कल्प का समोसरण क्या है ? कल्प से क्या अभिप्राय है ? इसके मूलार्थ से जीवन पर्यंत दिमाग लडाने से पता नहीं चलेगा । पू. आ. श्री अभय देव सूरिजी म. ने अपनी टीका में इसका अर्थ इस प्रकार लिखा है- “ एते च पूर्वोदिता अर्थाः समवसरण स्थितेन भगवता देशिता इति समवसरण वक्तव्यतामाह... 'कप्पस्स समोसरणं नेयव्वंत्ति' इहांवसरे कल्प भाष्य क्रमेण समवसरणं वक्तव्यता रोया सा चावश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्चते । वांचनान्तरे तु पर्युषण कल्पोक्त क्रमेणेत्थमिहितम् .. श्रीमद् विजयानंद सूरि और मूर्तिपूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५३ " www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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