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________________ तेरापंथी नामक फिरके सनातन परम्परा से बहिष्कृत हो चुके थे। ये आगमिक परम्परा, इतिहासवाद, युक्तिवाद, आध्यात्मिक उपयोगिता एवं अनेकान्त दृष्टि का तिरस्कार कर मूर्तिपूजा का घोर विरोध कर रहे थे । सम्पूर्ण पंजाब इनके जाल में फंसा अपने दुर्भाग्य को कोसता । किसी ऐसे नरवीर की बाट निहार रहा था जो उन्हें इनके चंगुल से मुक्त कर सकें। ऐसे समय में पूज्य आत्मारामजी महाराज पंजाब के लिए संजीवनी बूटी सिद्ध हुए, जिनके पुण्य प्रभाव से सैंकड़ों गगनचुम्बी मंदिरों पर आज ध्वजाएं फहर रही है। गुरुदेव समय के पारखी एवं सुधारवाद के प्रबल समर्थक थे। गतानुगतिकता एवं रूढ़ परम्पराओं का मर्यादाओं की भांति पालन उन्हें प्रिय नहीं था। यही कारण था कि साधारण खाते की टूट देखकर राधनपुर में आपने स्वप्नों की बोली उसमें जमा करने का उपदेश दिया। गुजरात में प्रचलित नकराप्रथा बंद एवं स्वधर्मीवात्सल्य का वास्तविक स्वरूप आपने समझाया। तीन थुई का नया पंथ उत्पन्न करने वालों के बोध के लिए चतुर्थ स्तुति निर्णय ग्रंथ लिखकर आपने महान् उपकार किया है। । समग्र विश्व को जैन धर्म के सर्वोच्च सिद्धान्तों से अवगत कराने के लिए आपने चिकागों में आयोजित सर्व धर्म परिषद् में श्रीयुत् वीरचंद राघव गांधी को अपना प्रतिनिधि बना कर भेजा । इस नौजवान बैरिस्टर बाबू ने बड़ी कुशलता से वहां जैन सिद्धान्तों को समझाकर अनेक लोगों को मांसभक्षण आदि पापाचार का त्याग करवाया। जब श्रीगांधी भारत लौटे तो कुछ रूढ़िग्रस्तों ने समुद्र यात्रा का अभियोग लगाकर उन्हें न्यात बाहर करना चाहा, किन्तु बड़े ही मार्मिक एवं ओजस्वी शब्दों में गुरुदेव ने उनका प्रतिकार किया। इससे स्पष्ट होता है कि समाज में व्याप्त अज्ञान एवं कुरीतियों का बिछौना गोल करने में गुरुदेव कितने प्रखर एवं दक्ष थे। ____ आचार्य भगवन्त कल्पनाजीवी नहीं, अपितु वास्तविकता के धरातल पर आगे ही आगे कदम बढ़ाते थे । आज जैन एकता की सारहीन प्रवृति को बहुत वेग मिल रहा है । जिस महाशय की महत्त्वाकांक्षा कहीं ओर शान्त नहीं होती वे कोई न कोई एकता मंच का प्रर्वतन कर अध्यक्षता का बोझ ढोते चारों सम्प्रदायों में एकता के लिए अपनी भाषणबाजी को भगीरथ पुरुषार्थ का खिताब देते हैं । इन स्वयंभू बुद्धिजीवियों के विपरीत आचार्य भगवन्त को यह सुज्ञात था कि आवश्यकता एकता की नहीं, वरन् एकमेक होने की है। इसके लिए समाज में ज्ञान प्रचार की पुरजोर आवश्यकता है, ताकि लोग स्वयं सत्या-सत्य का निश्चय कर कल्पित पंथ त्याग कर सनातन शुद्ध मार्गानुसारी बन सके । यही महापुरुषोचित कार्य उन्होंने स्वयं ढूंढक पंथ को तज समर्पित शासन सेवक ३४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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